
उज्जैन. कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को गोवत्स द्वादशी का पर्व मनाया जाता है। इस बार ये पर्व 12 नवंबर, गुरुवार को है। इस दिन गाय तथा बछड़ों की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। घर के आस-पास यदि गाय और बछडा़ न मिले, तो गीली मिट्टी से उनकी आकृति बनाकर पूजा करने का विधान है। इस व्रत में गाय के दूध से बनी चीजें नहीं खाई जातीं।
गोवत्स द्वादशी का महत्व
गोवत्स द्वादशी से संबंधित कई पौराणिक कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार राजा उत्तानपाद और उनकी पत्नी सुनीति ने सबसे पहले ये व्रत किया था। इस व्रत के प्रभाव से ही उन्हें भक्त ध्रुव जैसे पुत्र की प्राप्ति हुई। इसलिए निसंतान पति-पत्नी को उत्तम संतान के लिए ये व्रत करना चाहिए। इस दिन गाय की पूजा करने से भगवान विष्णु भी प्रसन्न होते हैं।
इस विधि से करें व्रत
- सबसे पहले व्रती (व्रत करने वाला) को सुबह स्नान आदि करने के बाद दूध देने वाली गाय को उसके बछडे़ सहित स्नान कराना चाहिए। फूलों की माला पहनाएं।
- माथे पर चंदन का तिलक लगाएं। तांबे के बर्तन में पानी, चावल, तिल और फूल मिलाकर नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए गाए के पैरों पर डालें।
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नम:॥
- इस मंत्र का अर्थ है- समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से उत्पन्न सुर तथा असुरों द्वारा नमस्कार की गई देवस्वरूपिणी माता, आपको बार-बार नमस्कार है। मेरे द्वारा दिए गए इस अर्घ्य को आप स्वीकार करें।
- इसके बाद गाय को विभिन्न पकवान खिलाएं और नीचे लिखा हुआ मंत्र बोलें-
सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस॥
तत: सर्वमये देवि सर्वदेवैरलड्कृते।
मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरु नन्दिनी॥
- इस तरह गाय और बछड़ों की पूजा करने के बाद गोवत्स व्रत की कथा सुनें। पूरा दिन व्रत रखकर रात में अपने इष्टदेव और गौ माता की आरती करें। इसके बाद ही भोजन करें।