बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है होली, इस उत्सव से जुड़ी हैं अनेक रोचक कथाएं

हिंदू पंचांग के अंतिम मास फाल्गुन की पूर्णिमा पर होलिका दहन किया जाता है और इसके अगले दिन होली (धुरेड़ी) खेली जाती है।

उज्जैन. इस बार 10 मार्च, मंगलवार को होली खेली जाएगी। होली मनाए जाने के पीछ कई कथाएं प्रचलित हैं। उनमें सबसे प्रमुख कथाएं ये हैं-

बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है होली
राजा हिरण्यकश्यपु राक्षसों का राजा था। उसका एक पुत्र था, जिसका नाम प्रह्लाद था। वह भगवान विष्णु का परम भक्त था। राजा हिरण्यकश्यपु भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था। जब उसे पता चला कि प्रह्लाद विष्णु भक्त है, तो उसने प्रह्लाद को रोकने का काफी प्रयास किया, लेकिन तब भी प्रह्लाद की भगवान विष्णु के प्रति भक्ति कम नहीं हुई।
यह देखकर हिरण्यकश्यपु प्रह्लाद को यातनाएं देने लगा। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे गिराया, हाथी के पैरों से कुचलने की कोशिश की। किंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। हिरण्यकश्यपु की होलिका नाम की एक बहन थी। उसे वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए होलिका से कहा।
होलिका प्रह्लाद को गोद में बैठाकर आग में प्रवेश कर कई। किंतु भगवान विष्णु की कृपा से तब भी भक्त प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूप में होली मनाई जाने लगी।

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शिवजी और कामदेव को किया था भस्म
इंद्र भगवान शिव की तपस्या भंग करना चाहते थे। उन्होंने कामदेव को इस कार्य पर लगाया। कामदेव ने उसी समय वसंत को याद किया और अपनी माया से वसंत का प्रभाव फैलाया, इससे सारे जगत के प्राणी काममोहित हो गए।
कामदेव का शिव को मोहित करने का यह प्रयास होली तक चला। होली के दिन भगवान शिव की तपस्या भंग हुई। उन्होंने रोष में आकर कामदेव को भस्म कर दिया तथा यह संदेश दिया कि होली पर काम (मोह, इच्छा, लालच, धन, मद) इनको अपने पर हावी न होने दें।
तब से ही होली पर वसंत उत्सव एवं होली जलाने की परंपरा प्रारंभ हुई। इस घटना के बाद शिव ने पार्वती से विवाह की सम्मति दी। जिससे सभी देवी-देवताओं, शिवगणों, मनुष्यों में हर्षोल्लास फैल गया। उन्होंने एक-दूसरे पर रंग गुलाल उड़ाकर आपस में गले मिलकर जोरदार उत्सव मनाया, जो आज होली के रूप में घर-घर मनाया जाता है।

ये भी एक कारण है होली मनाने का
राजा रघु के राज्य में ढुण्डा नाम की एक राक्षसी ने शिव से अमरत्व का वर प्राप्त कर लोगों को खासकर बच्चों को सताना शुरु कर दिया। भयभीत प्रजा ने अपनी पीड़ा राजा रघु को बताई।
तब राजा रघु के पूछने पर महर्षि वशिष्ठ ने बताया कि शिव के वरदान के प्रभाव से उस राक्षसी की देवता, मनुष्य, अस्त्र-शस्त्र या ठंड, गर्मी या बारिश से मृत्यु संभव नहीं, किंतु शिव ने यह भी कहा है कि खेलते हुए बच्चों का शोर-गुल या हुडदंग उसकी मृृत्यु का कारण बन सकता है।
अत: ऋषि ने उपाय बताया कि फाल्गुन पूर्णिमा का दिन शीत ऋतु की विदाई का तथा ग्रीष्म ऋतु के आगमन का होता है। उस दिन सारे लोग एकत्र होकर आनंद और खुशी के साथ हंसे, नाचे, गाएं, तालियां बजाएं।
छोटे बच्चे निकलकर शोर मचाएं, लकडिय़ा, घास, उपलें आदि इकट्‌ठा कर मंत्र बोलकर उनमें आग जलाएं, अग्नि की परिक्रमा करें व उसमें होम करें। राजा द्वारा प्रजा के साथ इन सब क्रियाओं को करने पर अंतत: ढुण्डा नामक राक्षसी का अंत हुआ।
इस प्रकार बच्चों पर से राक्षसी बाधा तथा प्रजा के भय का निवारण हुआ। यह दिन ही होलिका तथा कालान्तर में होली के नाम से लोकप्रिय हुआ।
 

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