आचार्य चाणक्य एक महान विद्वान थे। उन्होंने चाणक्य नीति शास्त्र में अपने अनुभवों और विचारों को नीतियों के रूप में संकलित किया है। इसमें न केवल व्यक्ति बल्कि समाज कल्याण के लिए बहुमूल्य बातें हैं।
उज्जैन. चाणक्य नीति के एक श्लोक में आचार्य चाणक्य ने ऐसी स्थिति का वर्णन किया है कि एक ऐसी परिस्थिति सामने आ जाती है जहां मनुष्य अकेला पड़ जाता है, अपने भी उसका साथ छोड़कर चले जाते हैं। यह श्लोक इस प्रकार है…
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तमर्शवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुषस्य बन्धु:।।
अर्थ- जब व्यक्ति के पास धन नहीं रहता है तो उसे मित्र, स्त्री, पुत्र, भाई-बंधु, नौकर चाकर सभी छोड़कर चले जाते हैं। वहीं यदि उसके पास फिर से धन संपत्ति आ जाए तो वे सभी पुनः उसके साथ खड़े दिखाई देते हैं। संसार में धन ही मनुष्य का बंधु है।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति।।
अर्थ- अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक से अधिक 10 वर्ष तक आदमी के पास टिकता है और 11वें वर्ष के शुरू होते ही ब्याज और मूल सहित नष्ट हो जाता है। यानी मनुष्य को गभी गलत और अन्याय के रास्ते से धन नहीं कमाना चाहिए। बल्कि अपने पुरुषार्थ से धन कमाना चाहिए।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ।।
अर्थ- सांप दुर्जन व्यक्ति से ज्यादा बेहतर है। क्योंकि सांप खुद पर खतरा महसूस होता है तभी डसता है लेकिन दुर्जन प्रवृति का मनुष्य हर समय डसने के लिए मौका तलाशता है। चाणक्य के अनुसार दुर्जन मनुष्य आपका कभी भला नहीं कर सकता है।
प्रलये भिन्नमार्यादा भविंत किल सागर:
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलेयशपि न साधव:।
अर्थ- जब प्रलय आती है तो समुद्र भी अपनी सीमाओं को तोड़ देता है, लेकिन सज्जन व्यक्ति प्रलय के समान भयंकर आपत्ति एवं विपत्ति में भी अपनी सीमा नहीं लांघते हैं। सज्जन व्यक्ति धैर्यवान होते हैं। अपने संयम से ही वे सफल होते हैं।
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