ओडिशा में 4 दिन मनाया जाता है धरती की माहवारी का पर्व, इस दौरान नहीं किए जाते ये काम, बहुत अनोखी है ये परंपरा

हमारे देश में कई अनोखी परंपराएं निभाई जाती हैं। इनमें से कुछ परंपराएं तो ऐसी हैं, जिनके बारे में शायद ही किसी ने सुना भी हो। ओडिशा (Odisha) में ऐसी ही एक परंपरा मिथुन संक्रांति से शुरू कर 4 दिन तक मनाई जाती है। ओडिशा में इसे रज संक्राति पर्व (raj sankranti festival 2022) कहते हैं।

उज्जैन. ऐसा माना जाता है कि जब सूर्य वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करता है तो धरती की माहवारी शुरू हो जाती है, जिसके चलते इन 4 दिनों में खुदाई, जुताई, बुवाई जैसा खेती से जुड़ा कोई भी काम नहीं किया जाता। इस दौरान सिल बट्टे का उपयोग भी नहीं किया जाता, क्योंकि इसे भी धरती का ही रूप माना जाता है। इस बार मिथुन संक्रांति 15 जून, बुधवार को है। आगे जानिए इस परंपरा से जुड़ी और भी खास बातें…

ये है इस परंपरा से जुड़ी मान्यता
पुरी के ज्योतिषाचार्य पं. गणेश मिश्र के अनुसार, रज संक्रांति का पर्व सिर्फ ओडिशा में ही मनाया जाता है। वहां के लोगों का मानना है कि जिस तरह महिलाओं को हर महीने माहवारी होती है, उसी तरह मिथुन संक्रांति से शुरू कर आने वाले 4 दिन धरती मां के मासिक धर्म वाले होते हैं। पहले दिन को पहिली रज, दूसरे दिन को रज, तीसरे को बासी रज और चौथे दिन को वसुमती स्नान कहा जाता है। 4 दिनों तक चलने वाले इस पर्व का विशेष महत्व स्थानीय लोग मानते हैं। 

रज पर्व के दौरान महिलाएं करती हैं ये काम
- स्थानीय परंपरा के अनुसार, रज पर्व के पहले दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर स्नान करती हैं, इसके बाद अगले 2 दिनों तक स्नान नहीं करती। 
- रज पर्व के चौथे और अंतिम दिन पवित्र स्नान करने के बाद धरती माता को प्रणाम कर चंदन, सिंदूर और फूल से उनकी पूजा करते हैं। 
- इसके बाद कपड़े और कई तरह की चीजों का दान किया जाता है। इन 4 दिनों में धरती पर किसी भी तरह की खुदाई, बोवाई या जुताई नहीं की जाती।
- वास्तव में ये पर्व कृषि पर्व से जुड़ा होता है। मान्यता है कि सूर्य जब मिथुन राशि में प्रवेश करता है तो बारिश जरूर होती है। पहली बारिश का स्वागत करने के लिए ही भू देवी यानी धरती माता की पूजा की जाती है।
- इस पर्व में महिलाएं और कुंवारी लड़कियां विशेष तौर पर भाग लेती है, जो अच्छी फसल और मनचाहे जीवन साथी की कामना के साथ धरती मां और भगवान सूर्य की पूजा करती हैं। 
- ओडिशा में ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस परंपरा की शुरूआत कैसे हुई, इसके बारे में किसी को कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है।


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