सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल है राजस्थान का रामदेवरा, हिंदू-मुस्लिम दोनों ही करते हैं बाबा रामदेव की पूजा

हमारे देश में अनेक लोकदेवताओं की पूजा की जाती है। ये देवता किसी विशेष स्थान में अधिक लोकप्रिय होते हैं, लेकिन इनके अनुयायी देश भर में पाए जाते हैं। ऐसे ही एक लोकदेवता हैं भगवान रामदेव। इन्हें बाबा रामदेव (Baba Ramdev) और रामसा पीर (Ramsa Pir) के नाम से जाना जाता है।

Asianet News Hindi | Published : Sep 7, 2021 5:21 PM IST

उज्जैन. वैसे तो देश में रामसा वीर के कई पूजा स्थल हैं, लेकिन मुख्य मंदिर राजस्थान (Rajasthan) के जैसलमेर (Jaisalmer) से क़रीब 12 किलोमीटर दूर रामदेवरा (ramdevra) नामक स्थान पर है। यहां मध्यकालीन लोकदेवता बाबा रामदेव के दर्शन के लिए इन दिनों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। हर साल भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वितिया तिथि को इनकी जयंती मनाई जाती है। इस बार ये तिथि 8 सितंबर, बुधवार को है।

सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल
बाबा रामदेव (Baba Ramdev) सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। यहां हिंदू और मुस्लिम दोनों ही आकर सिर झुकाते हैं। सांप्रदायिक सदभाव के प्रतीक माने जाने वाले इस लोक देवता की समाधि के दर्शन के लिए विभिन्न धर्मों को मानने वाले, ख़ास तौर पर आदिवासी श्रद्धालु देश भर से सालाना मेले में आते हैं।

एक महीने चलता है मेला
रामदेवरा (ramdevra) में बाबा रामदेव की जयंती से शुरू होने वाला मेला लगभग एक महीने चलता है। वैसे बहुत से श्रद्धालु भाद्र माह की दशमी यानी रामदेव जयंती पर रामदेवरा अवश्य पहुँचना चाहते हैं। इस दौरान रामदेवरा (ramdevra) मेले में श्रद्धालु गाते बजाते और ढोल नगाड़ों पर थाप देते हुए और बाबा रामदेव का प्रतीक ध्वज पताकाएं लिए देखे जाते हैं। जैसलमेर से रामदेवरा तक का पूरा मार्ग बाबा के भजनों से गुंजायमान रहता है। मेले के दौरान बाबा के मंदिर में दर्शन के लिए चार से पांच किलोमीटर लंबी कतारें लगती हैं 

पहले यहां करते हैं दर्शन
श्रद्धालु पहले जोधपुर में बाबा के गुरु के मसूरिया पहाड़ी स्थित मंदिर में भी दर्शन करना नहीं भूलते। उसके बाद जैसलमेर की ओर कूच करते हैं। लोककथाओं के अनुसार बाबा के पिता अजमाल और माता मीनल ने द्वारिका के मंदिर में प्रार्थना कर प्रभु से उन जैसी संतान प्राप्ति की कामना की थी। इसीलिए बाबा रामदेव को कृष्ण का अवतार माना जाता है। बहुत से लोग रामदेवरा में मन्नत भी मांगते हैं और मुराद पूरी होने पर कपड़े का घोड़ा बनाकर मंदिर में चढ़ाते हैं।

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