जानिए आखिर क्यों सुनील दत्त को जिंदगी पर रहा पिता की शक्ल न देख पाने अफ़सोस, दर्द से भरी है उनकी यह कहानी

संजय दत्त के पिता सुनील दत्त तब महज 5 साल के थे, जब उन्होंने पिता को खो दिया था। बाद में विभाजन ने उनके हालात बद से बदतर हो गए थे।

Gagan Gurjar | Published : Jun 5, 2022 7:47 PM IST / Updated: Jun 06 2022, 11:44 AM IST

एंटरटेनमेंट डेस्क. अपने ज़माने के दिग्गज अभिनेता सुनील दत्त (Sunil Dutt) की आज (6 जून)  93वीं बर्थ एनिवर्सरी है। सुनील दत्त साहब का जन्म 6 जून 1929 को पश्चिमी पंजाब के खुर्द गांव (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि सुनील दत्त अपने बेटे संजय दत्त की तरह मुंह में चांदी की चम्मच लिए पैदा नहीं हुए थे। बल्कि जन्म के पांच साल बाद ही उनकी जिंदगी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया था।

वह सुबह, जब सिर से पिता का साया उठ गया

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सुनील दत्त का असली नाम बलराज दत्त था। उनके पिता रघुनाथ  गांव के ज़मींदार थे। उनका नियम था कि हर दिन सुबह जल्दी उठते थे, अपनी ज़मीन का सर्वे करते थे और कर्मचारियों से बात करते थे। ऐसी ही एक सुबह की बात है। तब बलराज 5 साल के थे और अपनी छोटी बहन के साथ बाहर खेल रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि उनकी दादी बदहवास सी उनकी ओर दौड़ी चली आ रही थीं और कह रही थीं कि रघुनाथ को कुछ हो गया। दादी ने बलराज को रघुनाथ को देखने के लिए भेज दिया।

बलराज ने दादी की बात मानी और अपने पिता को देखने के चले गए। उन्होंने देखा कि रघुनाथ एक चाय की दुकान के पास फर्श पर अचेत पड़े हैं और लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर रखा है। लोग रघुनाथ को उठाने की कोशिश कर रहे थे और असहाय बलराज चुपचाप इस उम्मीद में पिता को देखे जा रहे थे कि वे आंख खोलेंगे और खुद बचाएंगे। लेकिन हकीकत यह थी कि वे अपने पिता को खो चुके थे।

चूंकि घर में सबसे बड़े बलराज थे, इसलिए उन्हें इत्तला किया गया कि उनके पिता नहीं रहे। बलराज ने पिता को मुखाग्नि दी और असहाय से अपने पिता को अग्नि में समाते देखते रहे। लेकिन इससे भी दुखद यह था कि बलराज यानी सुनील दत्त ने होश संभालने के बाद अपने पिता का चेहरा नहीं देखा था। उन्होंने एक बातचीत में कहा था, "आज मुझे एक ही खेद होता है कि मैंने कभी अपने पिता का चेहरा नहीं देखा। उनकी कोई भी फोटो नहीं थी।"

तमाम उम्र खुद को रिफ्यूजी बताते रहे

1947 में विभाजन हुआ और खुर्द पाकिस्तान में चला गया। दत्त फैमिली को भारत आना पड़ा। उन्होंने अपने परिवार के साथ कई महीने रिफ्यूजी कैंप में बिताए। उनके पास न पैसा था और न ही अपना घर। इसलिए बलराज अपनी पूरी जिंदगी खुद को रिफ्यूजी ही कहते रहे।

बाद में बलराज का परिवार हरियाणा के मंडोली में सेटल हो गया। फिर एक दिन अपने जेब में 50 रुपए लिए ट्रेन पकड़कर बलराज मुंबई आ गए। क्योंकि वे पढना चाहते थे और पैसा कमाना चाहते थे। उन्होंने जय हिंद कॉलेज से अपनी बैचलर डिग्री पूरी की। फिर बेस्ट बस डिपो में नौकरी करने लगे। लेकिन रहने की समस्या अभी भी थी। उस वक्त वे सोने के लिए काला घोड़ा इलाके में स्थित शिमला हेयर कटिंग सैलून के फर्श पर सोया करते थे। बाद में उन्हें रेडियो प्रेजेंटर की नौकरी मिली और फिर वे फिल्मों में आ गए।

किस्मत ने फिर पलटी खाई और वे फिर कंगाल हो गए

सुनील दत्त को फर्श से अर्श तक जाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। लेकिन अर्श से फर्श पर लाने के लिए उनकी एक फिल्म ही काफी थी। वह फिल्म थी 'रेशमा और शेरा', जिससे 12 साल की उम्र में संजय दत्त ने भी फ़िल्मी दुनिया में पहला कदम रखा था। इस फिल्म की शूटिंग 15 दिन में पूरी की जानी थी। लेकिन इसे बनने में दो महीने का वक्त लग गया था और सुनील दत्त पर 60 लाख रुपए का कर्ज चढ़ गया था। इस फिल्म के चक्कर में वे 5 अन्य फिल्मों के ऑफर ठुकरा चुके थे।

'रेशमा और शेरा' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गई तो बकायादार पैसा मांगने लगे। सुनील दत्त के मुताबिक़, इस दौरान उन्होंने ऐसी कंगाली देखी कि उनकी 6-7 कारें बिक गई थीं। सिर्फ एक उन्होंने बचाई थी, जो उनकी बेटियों को स्कूल छोड़ने के काम आती थी। खुद धक्के खाते और लोगों के ताने सहते बस से आना-जाना करने लगे थे। लगभग दो साल तक उन्होंने आर्थिक तंगी का सामना किया और फिर 'हीरा' (1973),  'प्राण जाए पर वचन न जाए' (1974) और 'नहले पर दहला' (1976) जैसी फिल्मों की सफलता से उनकी जिंदगी एक बार फिर पटरी पर लौट आई।

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