भारत-पाकिस्तान की सीमा से सिर्फ 35 किलोमीटर दूर पातालपुरी गांव बसा है। यहां 70 प्रतिशत ग्रामीण लाहौर से आकर बसे हुए हैं। अमृतसर जिले के इस गांव का आज भी आसपास के लोग पाकिस्तानी बोलते हैं। पातालपुरी के लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगती।
मनोज ठाकुर, अमृतसर। पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं। राजनैतिक दल और नेता बड़े-बड़े दावे और वादे कर रहे हैं। ऐसे में सीमावर्ती लोगों की जिंदगी कैसी है? वहां के हालात क्या हैं? उनमें क्या बदलाव आए हैं? यह जानने के लिए एशिया नेट न्यूज हिंदी की टीम ने कई गांवों का दौरा किया। उनकी स्थिति, आर्थिक हालात और स्वास्थ्य सेवाओं का जायजा लिया। सबसे पहले हम पहुंचे भारत-पाकिस्तान बॉर्डर से सिर्फ 30 किमी पहले पातालपुरी गांव। यहां 70 प्रतिशत ग्रामीण लाहौर से आकर बसे हुए हैं। ये गांव अमृतसर जिले में आता है।
इस गांव को आसपास के लोग पाकिस्तानी बोलते हैं। पातालपुरी के लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगती। वह कहते हैं- हम पाकिस्तानी नहीं, भारतीय हैं। मगर अब बोलने वालों की जुबान तो पकड़ नहीं सकते हैं। यहां के राजकुमार (39 साल) ने बताया कि पाकिस्तान का टैग हमारे माथे पर इस तरह से चिपका हुआ है कि कई पीढ़ी गुजरने के बाद भी हम भारत के नहीं हो पाए हैं।
बच्चों की पढ़ाई के लिए ना जागरूकता, ना संसाधन
इस गांव में घुसते ही अहसास हो जाता है कि किसी स्लम एरिया में आ गए हैं। गंद से बजबजाती नालियां सहज ही अहसास करा देती हैं कि यहां से दिल्ली ही दूर नहीं, बल्कि विकास भी कोसों दूर है। गांव में 40 पार की उम्र के 60 प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं। बच्चों की पढ़ाई के लिए ज्यादा जागरूकता गांव में नहीं है। 2 हजार वोट हैं। आबादी करीब साढ़े तीन हजार के आसपास है। गांव में 20 परिवारों के पास ही अपनी थोड़ी बहुत जमीन है। बाकी के लोग मजदूरी कर जीवन बसर कर रहे हैं। घर चलाने के लिए महिलाओं को भी मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती है। पंजाब के जमींदारों का गांव में टैंपू आता है। महिलाएं सुबह इसमें बैठकर खेत में चली जाती हैं। शाम को यही टैंपू वापस छोड़ देता है।
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हाइवे पर समृद्ध पंजाब, चंद कदम दूरी पर स्लम एरिया जैसे हालात
अमृतसर से पठानकोट जाने वाले हाइवे से यदि आप गुजरते हैं तो एहसास ही नहीं होगा कि यह बॉर्डर का इलाका है। यह हाइवे समृद्ध पंजाब की एक झांकी पेश करता नजर आएगा। लेकिन हाइवे से ढाई किलोमीटर अंदर आते ही आपको अहसास होने लगेगा कि बॉर्डर के ग्रामीण इलाकों के हालात कितने बदतर हैं। खासतौर पर वह गांव जिसमें पाकिस्तान से लोग आकर बसे हैं। पतालपुरी गांव के लोग ऑन कैमरा बोलने से बचते हैं। कुछ है, जो बोलने की हिम्मत करते हैं। बाकी कन्नी काट जाते हैं। ऐसा क्यों है? इस सवाल पर एक ग्रामीण ने बताया कि जो बोलता है, उसे ही निशाना बना लिया जाता है।
हमें पाकिस्तानी मानकर निशाना बनाया जाता है
क्यों निशाना बनाते हैं? इसका जवाब उन्होंने इस तरह से दिया कि क्योंकि उन्हें अभी भी पाकिस्तानी माना जाता है। इसलिए यह माना जाता है कि हम यहां से पाकिस्तान की मदद कर रहे हैं। हम ऐसा क्यों करेंगे? हमारे पूर्वज यदि पाकिस्तान से यहां आ गए तो हमारा कसूर क्या है? हमें अब इसकी सजा क्यों दी जा रही है। हमें अब पाकिस्तानी बनकर नहीं रहना। हम भारतीय होना चाहते हैं। कृपया, हमें भारतीय बनने दो। हमारी निष्ठा पर शक ना कीजिए। एक ग्रामीण ने गुस्से और रोष से अपने यह भाव प्रकट किए।
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हमारे माथे पर पाकिस्तान टैग, ये छूट ही नहीं रहा है
घर के बढ़े-बुजुर्ग हमें चुप रहना सिखाते हैं। क्योंकि बोलते ही उन पर सुरक्षा एजेंसियों की नजर पड़ जाती है। इसके बाद तो उनका जीना ही मुश्किल हो जाता है। पाकिस्तान से भारत आए हमें कई दशक हो गए। हम तीसरी और चौथी पीढ़ी से हैं। फिर भी पाकिस्तानी टैग हमारे माथे पर चिपका है। हम हर कोशिश कर हैं- यह टैग छूट जाए। लेकिन नहीं। हमें बार बार अहसास कराया जाता है, हमारी जड़ पाकिस्तान से थी। यहां हमारी पहचान नाम से नहीं, पाकिस्तान से हैं। हम इस पहचान को खत्म करना चाहते हैं। हम भारतीय है। हम भारतीय पहचान में जीना चाहते हैं। लेकिन...। क्या हम अपना सीना चीर के दिखाएं कि हम भारत को अपनी मातृभूमि मानते हैं?
हमारे साथ दूसरे देश के नागरिक जैसा व्यवहार
वे कहते हैं कि हम पाकिस्तान से जरूर हैं। मगर अब भारत के हो गए। पाकिस्तान को कभी का भूल चुके हैं। अब तो याद भी नहीं, पाकिस्तान में कहां से हैं हम। बस, इतना पता है- लाहौर के पास गांव था। बंटवारे में वहां से उठकर हमारे पूवर्ज यहां आ गए। तब से आज तक पाक की तरफ पांव भी नहीं किए। ना वहां गए। ना वहां की बात करते। हम यहां खुश हैं। अब तो यही जमीं हमारी मातृभूमि है। जीना यहां है। मरना भी यहां है। फिर पाकिस्तान की बात ही क्यों करें? इसके बाद भी हमें आज भी पाकिस्तानी ही बोला जाता है। हमारे साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार होता है।
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सुरक्षा एजेंसियां भी परेशान करती हैं
राजकुमार एक लंबी सांस छोड़ते हुए कहते हैं- आज भी हमारे ऊपर पाकिस्तानी टैग है। हम पर यहां के स्थानीय लोग ही शक नहीं करते, बल्कि सुरक्षा एजेंसियां भी गाहे बगाहे हमें टटोलती रहती हैं। कहीं हम गड़बड़ तो नहीं कर रहे हैं। हमें यहां का माना ही नहीं जाता। इसी तरह की पीड़ा यहां के 43 साल के निक्का राम की है। उन्होंने बताया कि हमारे पूर्वज यहां आ गए। हम यहां रहते हैं। इसके बाद भी हमारे साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार होता है। पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं। नेता हमारे यहां वोट मांगने तो आते हैं। आएंगे, चाय भी पीएंगे। लेकिन, जीतने के बाद यहां कोई नहीं आता।
हमारे पास कोई काम नहीं, मजदूरी करके पेट पालते हैं
हम यहां बदहाल जीवन जी रहे हैं। हमारे पास कोई काम नहीं है। हम आस पास के गांवों में खेत मजदूर की तरह काम करते हैं। महिलाओं को 200 रुपए प्रति दिन मिलता है। आदमी को साढ़े 350 रुपए मिल जाते हैं। सीजन में तो काम मिल जाता है, लेकिन अब कोई काम नहीं है। कुछ सब्जी उत्पादक किसान हैं। वह महिलाओं को निराई गुड़ाई का काम दे रहे हैं।
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