स्कूल तक कोई गाड़ी पहुंचना मुश्किल हुआ, तो टीचर ने खरीद लिया घोड़ा

रायपुर, छत्तीसगढ़. कहते हैं कि मां-बाप के बाद शिक्षक ही बच्चों का भविष्य बेहतर बनाकर एक अच्छे देश और समाज का निर्माण करते हैं। यह और बात है कि इसके लिए मां-बाप और शिक्षकों को बड़े कष्ट उठाने पड़ते हैं। आज भी गांवों के सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है। भवनों या अन्य सुविधाओं की बात छोड़ दीजिए, वहां तक पहुंचना भी शिक्षकों के लिए एडवेंचर से कम नहीं होता। स्कूल तक सड़क नहीं, कहीं नदी-नाले या जंगल पार करने पड़ते हैं। लेकिन कई शिक्षक ऐसे हैं, जो इन सारी बाधाओं को पार करके बच्चों को पढ़ाने जाते हैं। ऐसे ही एक शिक्षक हैं बीरबल सिंह। ये कवर्धा जिले के पंडरिया तहसील के तहत आने वाले बिरेनबाह गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं। इस स्कूल तक पहुंचने के लिए बीरबल को खराब सड़क और बरसाती नदी पार करनी पड़ती है। बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, इसलिए उन्होंने डेढ़ लाख रुपए में यह घोड़ा खरीद लिया। अब वे रोज 5 किमी इसी घोड़े से स्कूल जाते हैं। टीचर्स-डे(5 सितंबर) पर पढ़िए बीरबल के अलावा ऐसे ही शिक्षकों के बारे में...

Asianet News Hindi | Published : Sep 5, 2020 4:58 AM IST / Updated: Sep 05 2020, 11:19 AM IST
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स्कूल तक कोई गाड़ी पहुंचना मुश्किल हुआ, तो टीचर ने खरीद लिया घोड़ा

बीरबल की कहानी
बीरबल सिंह मरावी जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने जाते हैं, वो ग्राम पंचायत झिंगराडोंगरी के तहत आता है। स्कूल में 26 बच्चे पढ़ते हैं। वे मलकछरा गांव में रहते हैं। यहां से स्कूल की दूरी करीब 5 किमी है। रास्ता बेहद खराब है। वहीं, स्कूल से कुछ पहले आगर नदी पड़ती है। यह बरसात में भरी रहती है। बीरबल की इस स्कूल में पोस्टिंग 2009 में हुई थी। जब उन्होंने देखा कि बरसात में स्कूल जाना मुश्किल हो रहा है, तो डेढ़ साल पहले उन्होंने यह घोड़ा खरीद लिया। 

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नाव से जाते हैं स्कूल...
यह तस्वीर छत्तीसगढ़ के ही नक्सलप्रभावित दंतेवाड़ा जिले के करका इलाके के एक स्कूल की है। गीदम बीईओ शेख रफीक बताते हैं कि यहां के 4 गांवों में 19 स्कूल हैं। इन स्कूलों में पोस्टिंग से सब बचते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी टीचर हैं, जो नक्सली गांवों में भी जान जोखिम में डालकर बच्चों को पढ़ाने जाते हैं। उन्हें नदी पार करने नाव का सहारा लेना पड़ता है।
 

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यह हैं चलता-फिरता स्कूल..
यह हैं  छत्तीसगढ़ के ही जगदलपुर जिले के तोकापाल ब्लॉक के सिंघनपुर के प्राइमरी स्कूल के सहायक शिक्षक पतिराम राय। ये दिव्यांग है, इसलिए इन्होंने अपनी स्कूटी को ही स्कूल बना दिया है। किसी कारणवश जब बच्चे स्कूल नहीं आ पाते, तो वो खुद उनके घर निकल पड़ते हैं। स्कूटी पर उन्होंने सारी पाठ्य सामग्री लगा रखी है। वे कहीं भी पेड़ के नीचे, खुली जगह पर बच्चों को पढ़ाते देखे जा सकते हैं।

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कनस्तरवाले टीचर
यह हैं उत्तराखंड के अल्मोड़ा के द्वाराहाट के राजकीय इंटर कॉलेज बटुलिया में जीव विज्ञान के टीचर जमुनाप्रसाद तिवाड़ी। इन्हें लोग कंटरमैन के नाम से पुकारने लगे हैं। ये पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों और लोगों को पर्यावरण संरक्षण और साफ-सफाई का संदेश देते हैं। ये अपने क्षेत्र में 500 से अधिक कनस्तर बांट चुके हैं। मकसद लोग कचरा यहां-वहां नहीं फेंकें। इनकी इसी कोशिशों के लिए 2016 में राज्यपाल पुरस्कार और 2017 में शैलेष मटियानी पुरस्कार मिल चुका है।

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बैलगाड़ीवाले टीचर...

यह हैं नीरज सक्सेना। ये मध्य प्रदेश के रायसेन जिले की भोजपुर विधानसभा क्षेत्र के सालेगढ़ स्कूल में पिछले 10 साल से पदस्थ हैं। इन्होंने अकेले ही अपने स्कूल को आदर्श बना दिया। 15 अगस्त को उन्हें इसी के लिए सम्मानित किया गया था। वहीं, केंद्रीय इस्पात मंत्रालय ने उन्हें अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया है। नीरज सक्सेना ने स्कूल परिसर में खूब पेड़-पौधे लगाए हैं। जिन पर सामान्य ज्ञान से संबंधित जानकारियों की तख्तियां लटकाई गई हैं। शिक्षक ने करीब 2 एकड़ को हरा-भरा बना दिया है। यहां आदिवासी गांव के बच्चे पढ़ने आते हैं। स्कूल तक जाने के लिए सड़क नहीं है। लेकिन शिक्षक ने कभी हार नहीं मानी। वे पैदल ही कीचड़ में 5 किमी पैदल चलकर स्कूल पहुंच जाते हैं। कभी-कभार बैलगाड़ी पर ही बच्चों को बैठाकर स्कूल जाते देखे जाते हैं। 

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