भारतीय सेना का बहादुर, जिसने एक हजार रु. के बदले पाकिस्तान के टुकड़े कर दिए थे, आज तक डरता है दुश्मन

नई दिल्ली. पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाला और 1971 की जंग का हीरो फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने आज (27 जून 2008) ही के दिन दुनिया को अलविदा कहा था। सैम मानेकशॉ (Sam Manekshaw) भारतीय सेना (Indian army) के ऐसे जांबाज थे, जिन्हें उनकी बहादुरी और जिंदादिली के लिए याद किया जाता है। उन्हीं के नेतृत्व में भारत ने साल 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध जीता था। उस दौरान सैम भारतीय सेना के चीफ थे। 1971 में पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर एक देश बना था जो बांग्लादेश के नाम से जाना गया। 

Asianet News Hindi | Published : Jun 27, 2020 10:51 AM IST / Updated: Jul 01 2020, 02:58 PM IST

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भारतीय सेना का बहादुर, जिसने एक हजार रु. के बदले पाकिस्तान के टुकड़े कर दिए थे, आज तक डरता है दुश्मन

सैम मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी को स्वीटी कह दिया था। बात 1971 की है। एक बार इंदिरा ने अपने आर्मी चीफ से जंग के लिए पूछा तो मानेकशॉ ने कहा कि मैं हमेशा तैयार हूं स्वीटी। इंदिरा गांधी जानती थीं कि मानेकशॉ जैसे लीडर की दम पर ही वो पूर्वी पाकिस्तान में जंग जीत सकती हैं। इसलिए वो उनके सारे नखरे सहती थीं।

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सैम मानेकशॉ भारत के एक ऐसे आर्मी चीफ थे, जो उस समय की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की बात काटने से भी नहीं डरते थे। इतना ही नहीं वो इंदिरा गांधी को स्वीटी तक कह डालते थे।

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मानेकशॉ खुलकर अपनी बात कहने वालों में से थे। उन्होंने एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'मैडम' कहने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह संबोधन 'एक खास वर्ग' के लिए होता है। मानेकशॉ ने कहा कि वह उन्हें प्रधानमंत्री ही कहेगे।

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सैम मानेकशॉ से जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है। मानेकशॉ और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान एक साथ फौज में थे। दोनों दोस्त हुआ करते थे। उस समय मानेकशॉ के पास एक यूएस मेड मोटरसाइकिल हुआ करती थी। देश का बंटवारा हुआ तो याह्या खान पाकिस्तान फौज में चले गए। लेकिन जाते-जाते उन्होंने मानेकशॉ से उनकी मोटरसाइकिल 1000 रुपए में खरीद ली थी। लेकिन पैसे नहीं चुकाए। बात आई गई हो गई। लेकिन याह्या खान ने पाकिस्तान में तख्तापलट कर राष्ट्रपति का पद पा लिया। मानेकशॉ भारत के आर्मी चीफ बने। 1971 की जंग जीतने के बाद मानेकशॉ ने कहा था कि याह्या ने आधे देश के बदले में उनकी मोटरसाइकिल का दाम चुका दिया।
 

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मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया था। मानेकशॉ ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में पाई। बाद में वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए। 

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मानेकशॉ देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच (1932) के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे। वहां से वे कमीशन प्राप्ति के बाद 1934 में भारतीय सेना में भर्ती हुए।

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मानेकशॉ 1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए, जहां उनकी मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई। दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को विवाह में बदल गई। 1969 को उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया गया और 1973 में फील्ड मार्शल का सम्मान प्रदान किया गया।

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1973 में सेना प्रमुख के पद से रिटायर होने के बाद वे वेलिंगटन (तमिलनाडु) में बस गए थे। वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी और वे कोमा में चले गए। उनकी मृत्यु वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल के आईसीयू में 27 जून 2008 को रात 12.30 बजे हुई।

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17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार सेकंड वर्ड वॉर में जंग का स्वाद चखा। फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वे गम्भीर रूप से घायल हो गए थे।
 

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1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे। भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था। 

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तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने में योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया।

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7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमारमंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ बने। 

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दिसम्बर 1971 में सैम के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई तथा बांग्लादेश का निर्माण हुआ। उनके देशप्रेम के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण तथा 1 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सम्मानित किया गया। 

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चार दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से रिटायर हुए।

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मानेकशॉ कहते थे, अगर कोई सैनिक ये कहे कि वह मरने से नहीं डरता, तो फिर या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह गोरखा है।

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मानेकशॉ के ऐसे कई किस्से मशहूर हैं, जिनसे हमें पता चलता है कि अपने सैनिकों और अपने सेना के लिए काम करने वाले लोगों का वे बहुत सम्मान करते थे।

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सैम बहादुर नाम उन्हें गोरखा रेजिमेंट से ही मिला। एक बार उन्होंने हरका बहादुर गुरुंग नाम के एक गोरखा सिपाही से पूछा, मेरा नाम के हो? उस गोरखा सिपाही ने जवाब दिया, सैम बहादुर साब। तब से यह नाम प्रसिद्ध हो गया।

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