सरकार ने नहीं सुनी तो लोगों ने खुद बना डाली गांव में सड़क, रसोई छोड़ महिलाएं भी बन गईं मजदूर
विशाखापत्तनम. राज्य सरकार से उपेक्षा और उदासीनता के बाद विशाखापट्टनम में 9 गांव के आदिवासियों ने मिलकर अपनी खुद की सड़क बना डाली। आदिवासियों ने गांवों की कनेक्टिविटी और सुविधा के लिए दिन-रात काम कर सड़क का निर्माण कर दिया। इस पूरे अभियान में घर की महिलाओं भी रसोई, बर्तन-भांडे छोड़ मजदूर बन गईं।
Asianet News Hindi | Published : Feb 16, 2020 7:55 AM IST / Updated: Feb 16 2020, 01:27 PM IST
बता दें कि राज्य सरकार काफी सालों से आदिवासी लोगों की जरूरत को नजरअंदाज कर रही थी। यहां गांव वाले सड़क न होने के कारण बहुत परेशान थे। उन्हें जंगलों के रास्ते होकर गुजरा पड़ता था। सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी तो गांव वालों ने थक-हारकर खुद ही मैदान में उतरने की ठान ली। अब दूरदराज के इलाकों को जोड़ने के लिए गांव वाले अपनी मेहनत के दम पर एक कच्ची सड़क बना चुके हैं।
सड़क बनाने के लिए लोगों ने आस-पड़ोस से उपलब्ध सामग्री का उपयोग किया। गांव वालों ने सड़क बनाने के लिए लगभग तीन हफ्ते तक लगातार काम किया। मेहनत रंग लाई और 7 किमी लंबी कच्ची सड़क बनाकर तैयार कर दी गई। यह सड़क कुछ पूर्वी घाट बस्तियों को कनेक्टिविटी देती है। यहां तक पहुंचना आदिवासी लोगों के लिए टेड़ी खीर था।
स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया कि कई दलीलों के बावजूद, कोई आधिकारिक मदद नहीं मिली, जिससे उन्हें खुद सड़क बिछाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इन नौ बस्तियों में 1,500 आदिवासी लोगों के 250 परिवार शामिल हैं। इन लोगों को न तो चिकित्सा सेवाओं उपलब्ध हैं और न ही यहां दूर-दूर तक बिजली की व्यवस्था है।
बता दें कि गांव में सड़क बनाने का आइडिया चार आदिवासी युवाओं का था, उन्होंने इस परियोजना की शुरुआत की और गांववालों ने मिलकर इस सपने को साकार कर दिया। मीडिया से बात करते हुए एक आदिवासी पडवुला बुकानना ने कहा, "हम चारों ने नौ बस्तियों में पहाड़ी-निवासियों को प्रेरित करने का काम किया। हमें खुशी है कि हमारी मेहनत रंग लाई और अब गांव वाले सड़क से आएंगे-जाएंगे न की झाड़ी और पत्थरों को पार करके।"
9 गांव के सभी लोगों ने मिलकर इसी साल 23 जनवरी से परियोजना पर काम करना शुरू कर दिया था। लगभग 2.5 किमी प्रतिदिन की औसत से 100 से ज्यादा लोगों की टीम ने रोजाना काम किया। इस परियोजना पर काम करने के लिए तीन दूसरी जनजा9 गांव के सभी लोगों ने मिलकर इसी साल 23 जनवरी से परियोजना पर काम करना शुरू कर दिया था। लगभग 2.5 किमी प्रतिदिन की औसत से 100 से ज्यादा लोगों की टीम ने रोजाना काम किया। इस परियोजना पर काम करने के लिए तीन दूसरी जनजाति जैसे मुका डोरस, कोंडा डोरस और कोंडस भी काम करने के लिए एक साथ आ गए थे।ति जैसे मुका डोरस, कोंडा डोरस और कोंडस भी काम करने के लिए एक साथ आ गए थे।
सड़क बन जाने के बाद सरकार ने इसकी सुध ली। एकीकृत जनजातीय विकास एजेंसी के परियोजना निदेशक डीके बालाजी ने गांवों को पैसे भुगतान करने की बात कही है। उन्होंने कहा- एजेंसी यह सुनिश्चित करेगी कि परियोजना नरेगा के तहत लाई जाए। उन्होंने आगे दावा किया कि श्रम में शामिल लोगों को उनके काम के लिए भुगतान किया जाएगा। बालाजी ने कहा, "यह एक जबरदस्त प्रयास है, लेकिन यह मार्ग पर्याप्त नहीं होगा। बरसात के मौसम में ये कीचड़ वाली सड़कें धुल जाएंगी। हम पक्की सड़क की योजना बना रहे हैं।"