काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, क्या है पूरा विवाद

वाराणसी (Uttar Pradesh) । फास्ट ट्रैक कोर्ट ने काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के विवाद में पुरातत्व विभाग की टीम से सर्वे कराने के आदेश दिए हैं। जिसके मुताबिक पुरातत्व विभाग की पांच सदस्यीय टीम पूरे परिसर की खुदाई कर मिले साक्ष्यों का अध्ययन करेगी। साथ ही यह पता लगाएगी कि ज्ञानवापी परिसर के नीचे जमीन में मंदिर के अवशेष हैं या नहीं। वहीं, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इतिहासकार बताते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण औरंगजेब ने करवाया था। यह निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया था। औरंगजेब से पहले भी काशी विश्वनाथ मंदिर कई बार टूटा और बनाया गया। लेकिन, साल 1669 में औरंगजेब ने इसे तोड़कर वहां ज्ञानवापी मस्जिद बनवा दी। फिर मंदिर को बनाने के लिए काफी कोशिश की गई। 1780 में अहिल्या बाई होलकर ने मस्जिद के पास एक मंदिर का निर्माण करवाया और आज यही काशी विश्वनाथ मंदिर कहलाता है। 

Asianet News Hindi | Published : Apr 9, 2021 8:16 AM IST
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काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, क्या है पूरा विवाद

इस तरह कराया जाएगा सर्वे 
पुरातात्विक सर्वेक्षण करने वाले पांच विख्यात पुरातत्ववेत्ताओं की टीम में दो लोग अल्पसंख्यक समुदाय के होंगे। पुरातत्व विज्ञान के एक विशेषज्ञ और अनुभवी व्यक्ति को इस कमेटी के पर्यवेक्षक की जिम्मेदारी दी जाए। कमेटी  सर्वे के दौरान आम जनता एवं मीडिया का प्रवेश निषेध रहेगा। न तो कोई सदस्य सर्वे के संबंध में मीडिया से बात करेगा। कमेटी सर्वे के कार्य की फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी कराएगी। सर्वे कार्य पूर्ण होने के बाद कमेटी अपनी संपूर्ण रिपोर्ट बंद लिफाफे में न्यायालय में प्रस्तुत करेगी।
 

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अयोध्या जैसा नहीं है विवाद
काशी विश्ननाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर अयोध्या की तरह विवाद नहीं है। कोर्ट में चल रहा मुकदमा वाद संख्या 610 सन 1991 है। यह प्राचीन मूर्ति स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर व अन्य बनाम अंजुमन इतंजामिया मसाजिद व अन्य है। 1991 में यह मुकदमा काशी के तीन लोगों पंडित सोमनाथ व्यास, पंडित रामरंग शर्मा और हरिहर पांडेय ने दाखिल किया। इन तीनों के अलावा चौथे वादी स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर हैं। दूसरी तरफ अंजुमन इंतजामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव और प्रवक्ता एसएम यासीन हैं। 
 

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वरशिप एक्ट के इर्द-गिर्द घूमती है विवाद की सुई
यह विवाद 1991 में लागू हुए कानून प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट के इर्द-गिर्द घूमता है। प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था, वो आज और भविष्य में भी उसी का रहेगा। इसका मतलब है कि अगर आजादी के दिन एक जगह पर मन्दिर था तो उसपर मुस्लिम दावा नहीं कर सकता। चाहे आजादी से पहले वहां मस्जिद ही क्यूं न रहा हो। ठीक ऐसे ही 15 अगस्त 1947 को एक जगह पर मस्जिद था तो वहां पर आज भी मस्जिद की ही दावेदारी मानी जाएगी। इस कानून से अयोध्या विवाद को अलग रखा गया था।

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कोर्ट के फैसले को चुनौती देंगी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य और वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी ने इसे साल 1991 के प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ बताया है। साथ ही कहा कि हम इस फैसले को चुनौती देंगे। जिलानी के मुताबिक इस एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने भी गौर किया था। इस एक्ट में यह बात साफ लिखी है कि बाबरी मस्जिद और दूसरे इबादतगाह पर 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बदलाव नहीं किया जा सकेगा। वहां 15 अगस्त 1947 को मस्जिद थी, यह अदालत मान चुकी है और आज नहीं, पहले ही मान चुकी है। 

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हिंदू-मुस्लिम को बांटने की कोशिश कर रहे राजनीति करने वाले
इस मामले में अयोध्या के मुस्लिम पक्षकारों के अपने तर्क हैं। जिसके मुताबिक ज्ञानवापी परिसर मस्जिद का भाग है और उसके नीचे कभी कोई मंदिर नहीं था। जांच में कोई परेशानी नहीं है। मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने कहा कि जब तक अयोध्या का मामला रहा, हम बोलते रहे। बनारस में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग क्या कर रहे हैं? उनकी कोई जिम्मेदारी बनती है? मंदिर-मस्जिद के बारे में बोलना उलेमा लोगों का काम है, जो भी धर्म की राजनीति करते हैं, वह दरअसल हिंदू और मुसलमान को बांटने का कार्य करते हैं।

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हिंदू और मुस्लिम पक्ष का क्या कहना है?
इस कानून को लेकर हिंदू पक्ष के वकील विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि अगर 1991 के कानून को बदला न भी जाए। उसी के हिसाब से चलें तो यह तो तय करना ही होगा कि 15 अगस्त 1947 के दिन उस जगह पर मंदिर थी या मस्जिद। हमारा कहना है कि उस जगह हमेशा मंदिर ही रहा है। इसकी जांच के लिए पुरातात्विक सर्वेक्षण करवा लिया जाए। वहीं मुस्लिम पक्ष वरशिप एक्ट का हवाला देकर कहता है कि वहां 1947 के वक्त मस्जिद थी। इसलिए उसे वहीं पर रहने देना चाहिए।
 

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