विंध्यधाम : आस्था का चमत्कारी धाम, कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा..जानिए क्या है मान्यता

मिर्जापुर (Uttar Pradesh) । मां विंध्यवासिनी का वासंतिक नवरात्र मेला सोमवार की मध्य रात्रि से ही शुरू हो गया, लेकिन नाइट कर्फ्यू के कारण मंगलवार की सुबह छह बजे से दर्शन पूजन शुरू हुआ। इस बार कोरोना जांच की निगेटिव रिपोर्ट प्रस्तुत करने पर ही दर्शनार्थी विंध्यधाम में प्रवेश कर सकेंगे। यही नहीं विंध्यवासिनी मंदिर के चरण स्पर्श पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। साथ ही दर्शनार्थियों को संक्रमण से बचाव के लिए गाइड लाइन का पालन करना होगा। ऐसे में हम आपको विंध्य पर्वत पर बसे इस धाम की महिमा के बारे में बता रहे हैं, जिसका जिक्र धर्म ग्रंथों में भी किया गया है। बता दें कि यहां साल के दोनों नवरात्रों में देश के कोने-कोने से यहां लाखों श्रद्धालु आते हैं। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं दिख रहा है। महाभारत हो या पद्मपुराण, हर जगह मां के इस स्वरूप का वर्णन मिलता है। मान्यता है कि मां के ही आशीर्वाद से इस सृष्टि का विस्तार हुआ है। आदिशक्ति जगत जननी मां विन्ध्यवासिनी चमत्कार की ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे हुए हैं।

Asianet News Hindi | Published : Apr 13, 2021 6:19 AM IST / Updated: Apr 13 2021, 11:57 AM IST
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विंध्यधाम : आस्था का चमत्कारी धाम, कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा..जानिए क्या है मान्यता

राजा प्रजापति दक्ष और सती की कहानी से जुड़ा है इतिहास
राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया और भगवान शिव से विवाह किया। लेकिन, इस विवाह से सती के पिता दक्ष खुश नहीं थे। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अपनी बेटी सती और भगवान शिव को छोड़कर सभी देवताओं को आमंत्रित किया। सती बिना बुलाए यज्ञ में चली गईं थी। यज्ञ में राजा दक्ष ने शिवजी के बारे में अपमानजनक बातें कहीं थी। जिसे सती सह न सकीं और सशरीर यज्ञ की वेदी में स्वयं को समर्पित कर दी थी। 
 

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जागृत शक्तिपीठ है विंध्यवासिनी मंदिर 
मान्यता है कि दुःख में डूबे शिव ने सती के जलते हुए शरीर को उठाकर विनाश नृत्य किया था। इसे रोकने के लिए विष्णु ने सुदर्शन चक्र का इस्तेमाल कर सती की देह के टुकड़े कर दिए थे। ऐसे में जहां-जहां सती के शरीर के अंग गिरे, वो स्थान शक्तिपीठ बन गए। शक्तिपीठों के स्थानों और संख्या को लेकर ग्रंथों में अलग बातें कही गई हैं। कहीं 51 तो कहीं 52 शक्तिपीठों की बात कही गई है। इन्हीं शक्तिपीठों में से एक है विंध्यवासिनी मंदिर, जिसे जागृत शक्तिपीठ भी माना जाता है। 
 

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ब्रह्माजी ने भी जुड़ी है ये कहानी
माना जाता है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने सबसे पहले अपने मन से मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया था। विवाह के बाद मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर लगभग 100 सालों तक तपस्या की। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर देवी ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चली गई। तब से विंध्यवासिनी की पूजा होने लगी।

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शिव पुराण और श्रीमद्भागवत में भी है जिक्र
शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं। लेकिन, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।

(फाइल फोटो)

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कैसे पहुंचे विंध्याचल धाम
पूर्वांचल में गंगा नदी के किनारे बसे मिर्जापुर से 8 किमी दूर विंध्याचल की पहाड़ियों में मां विंध्यवासिनी का मंदिर है, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है। वाराणसी में लाल बहादुर शास्त्री यहां का निकटतम एयरपोर्ट है। जहां से विंध्याचल की दूरी 72 किलोमीटर है। विंध्याचल नजदीकी रेलवे स्टेशन है, लेकिन बहुत सारी ट्रेनें यहां नहीं रूकती तो बेहतर होगा कि मिर्जापुर तक की ट्रेन लें। यहां से विंध्याचल की दूरी लगभग 9 किमी है।(फाइल फोटो)

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पीतल नगरी के भी नाम से प्रसिद्ध है मिर्जापुर
कालांतर से पीतल नगरी के नाम से मशहूर मिर्जापुर की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह केवल संपूर्ण देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय था। यहां पर वैवाहिक कार्यक्रमों में पीतल के बर्तन थार, परात, हण्डा व लोटा आदि दिए जाने की बहुत ही पुरानी परंपरा है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। 

(फाइल फोटो)

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