India@75: कौन थे प्रखर राष्ट्रवादी राजगुरू, भगत सिंह के साथ मिलकर सांडर्स को उतारा था मौत के घाट

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तीन नाम देश के हर नागरिक की जुबान पर रहता है। वे तीन नाम हैं, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू। ये तीनों प्रखर राष्ट्रवादी युवा थे जिन्होंने अंग्रेजों के सामने कड़ी चुनौती पेश की थी। 
 

Manoj Kumar | Published : Jul 13, 2022 10:43 AM IST / Updated: Jul 13 2022, 04:27 PM IST

नई दिल्ली. देश की आजादी की लड़ाई में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। कारण यह है कि अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या के मामले में भगत सिंह के साथ फांसी पर लटकाए गए दो अन्य लोगों में शिवराम हरि राजगुरु भी शामिल थे। राजगुरू न सिर्फ प्रखर राष्ट्रवादी थे बल्कि वे ऐसे युवा थे जो क्रांतिकारियों में जोश भरने का काम करते थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों को जिन लोगों से भय खाते हुए देखा गया था, उनमें यह तीन नाम भी शामिल हैं, जिनमें से एक थे राजगुरू। 

कौन थे राजगुरू
इनका जन्म महाराष्ट्र में भीमा नदी के तट पर खेड़ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम हरिनारायण राजगुरु और माता का नाम पार्वती देवी था। अधिकांश युवा राष्ट्रवादियों की तरह राजगुरु भी गांधीजी के अहिंसक संघर्ष में विश्वास नहीं करते थे। वे अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की वकालत करते थे। उनके दोस्तों के अनुसार राजगुरु अपने शरीर को पुलिस के सभी प्रकार के शारीरिक कष्ट सहने के लिए तैयार कर चुके थे। वे जलती हुई लोहे की छड़ों को भी पकड़ लेने का अभ्यास कर चुके थे। कई साहसी युवाओं की तरह राजगुरु भी भगत सिंह के हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। संगठन में रघुनाथ राजगुरु इनका छद्म नाम रखा गया था।

अधिकारी की ली जान
भगत सिंह और राजगुरु जैसे राष्ट्रवादी अपने नायक लाला लाजपत राय की मृत्यु से क्रोधित थे। साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन रैली का नेतृत्व करते हुए लाजपत राय को पुलिस ने बर्बरता से पीटा था, जिसके कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। तब राजगुरू ने भगत सिंह व सुखदेव के साथ मिलकर बदला लेने की योजना बनाई। पूरी प्लानिंग के साथ तीनों युवाओं ने मिलकर पुलिस अधिकारी जान सांडर्स की हत्या कर दी। पकड़े जाने के बाद तीनों क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई। तीनों का मुकदमा पूरे देश में चर्चा का विषय बना था लेकिन अंततः 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर के जेल में फांसी के फंदे पर लटका दिया गया।  

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