झारखंड: किंगमेकर बनने की कोशिश में हैं छोटे दल, बिगाड़ रहे बड़े दलों का सियासी खेल

झारखंड के 19 साल के राजनीतिक इतिहास में अभी तक किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। ऐसे में क्या इस बार झारखंड में भी सत्ता की चाबी क्षेत्रीय दलों के पास ही रहेगी? 

रांची। झारखंड विधानसभा चुनाव की सियासी जंग में बीजेपी जहां अपने दम पर सत्ता को बरकरार रखने की जद्दोजहद में जुटी है, वहीं कांग्रेस-जेएमएम-आरजेडी का गठबंधन एक बार फिर से सत्ता में वापसी की आस लगाए बैठा है। छोटे और क्षेत्रीय दल बड़े दलों का खेल बिगाड़कर किंगमेकर बनने का ख्वाब देख रहे हैं। झारखंड के 19 साल के राजनीतिक इतिहास में अभी तक किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। ऐसे में क्या इस बार झारखंड में भी सत्ता की चाबी क्षेत्रीय दलों के पास ही रहेगी? क्या राज्य विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल वापसी कर सकती है?


दरअसल, महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर बीजेपी के अपने दम पर सरकार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। इसी का नतीजा है कि हरियाणा में बीजेपी के जेजेपी के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी तो महाराष्ट्र में अभी तक सरकार गठन का फॉर्मूला तय नहीं हो पाया है। जबकि, झारखंड में शुरू से ही क्षेत्रीय दलों का दबदबा रहा है और बिना सहयोग के अभी तक कोई भी सरकार नहीं बन सकी है। ऐसे में छोटे और क्षेत्रीय दल किंगमेकर बनने की जुगत में हैं।

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अब तक किसी पार्टी को नहीं मिला है बहुमत

साल 2000 में जब से झारखंड का गठन हुआ है, राजनीतिक अस्थिरता के बीच बीजेपी हर बार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनती रही है, लेकिन अब तक किसी एक दल को अपने दम पर पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 81 सीटों वाली विधानसभा में 37 सीटें जीती थीं और बहुमत से पांच सीट कम रह गई थी। ऐसे में बीजेपी ने आजसू के सहयोग से सरकार बनाया था।

हालांकि 2014 के बाद जब से नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी का दबदबा शुरू हुआ तो दूसरे राज्यों की तरह झारखंड में भी क्षेत्रीय पार्टी बीजेपी के सामने सरेंडर करती दिखी और उन दलों का वजूद खतरे में नजर आ रहा है। झारखंड में पांच चरणों में विधानसभा 30 नवंबर से शुरू होगा, जबकि वोटों की गिनती 23 दिसंबर को होगी। इस बार के सियासी संग्राम में जिस तरह क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के सामने मजबूती से लड़ रह हैं। इससे नए सियासी समीकरण बनते नजर आ रहे हैं।

आजसू का बड़ा ख्वाब

झारखंड में बीजेपी की सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) ने इस बार एनडीए से नाता तोड़कर अलग चुनावी मैदान में है। जबकि पिछले चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी थी और आठ में से पांच सीटें जीतकर रघुवर दास सरकार में शामिल हुई थी। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद आजसू प्रमुख सुदेश महतो ने बीजेपी के सामने अपनी सीटों की डिमांड बढ़ा दिया था। आजसू ने बीजेपी से 18 सीटों की मांग थी, लेकिन बीजेपी 9 से 12 सीटें देना चाहती थी। सुदेश महतो ने सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय नहीं होने से बीजेपी से नाता तोड़कर अलग चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। आजसू ने झारखंड की 26 सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है।

राज्य की राजनीति में कभी आजसू का मजबूत मुकाम हुआ करता था और सुदेश महतो राज्य के सबसे कद्दावर नेता मानते जाते थे। हालांकि इस बार बदले समीकरण में आजसू कई दूसरे दलों के मजबूत नेताओं का ठिकाना बना है। बीजेपी ने सुदेश महतो की सिल्ली सीट पर प्रत्याशी न उतारकर चुनाव के बाद गठबंधन के रास्ते खोल रखे हैं। ऐसे में देखना होगा कि आजसू 26 में से कितनी सीटें जीतकर आती है।

बाबूलाल मरांडी की अग्निपरीक्षा

झारखंड विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी परीक्षा जेवीएम प्रमुख बाबूलाल मरांडी है। मरांडी ने महागठबंधन से नाता तोड़कर अलग चुनावी ताल ठोक दिया है। इस तरह से उन्होंने चुनाव के बाद से रास्ते खोल रखे हैं। मरांडी अदिवासी समुदाय के दिग्गज नेता माने जाते हैं। झारखंड के पहले सीएम रह चुके हैं, लेकिन उस समय वो बीजेपी से चुने गए थे। जेवीएम ने 2014 के चुनाव में 8 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, लेकिन नतीजे के बाद छह विधायकों ने उनका साथ छोड़ दिया और बीजेपी में शामिल हो गए थे। इस बार देखना होगा कि वह क्या करिश्मा कर दिखाते हैं।

बिहार के दलों पर नजर

बिहार से अलग होकर झारखंड अलग राज्य बना है। ऐसे में बिहार के क्षत्रपों का अपना भी राजनीतिक आधार है। यही वजह है कि बिहार के तीनों प्रमुख पार्टियां आरजेडी, जेडीयू और एलजेपी झारखंड के सियासी संग्राम में अपनी किस्मत आजमाती रही हैं। आरजेडी और जेडीयू के तो विधायक भी झारखंड में जीतते रहे हैं, लेकिन मौजूदा समय में इनके पास एक भी विधायक नहीं है। आरजेडी जहां महागठबंधन का हिस्सा है और 8 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। वहीं, केंद्र और बिहार में बीजेपी की सहयोगी जेडीयू और एलजेपी अलग-अलग चुनावी मैदान में है। एलजेपी ने 50 सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है तो जेडीयू सभी सीटों पर चुनावी मैदान में उतरने की घोषणा कर रखी है। ऐसे में देखना होगा कि बिहार के तीनों प्रमुख दलों में से कौन कितने पानी में रहता है।

बसपा अपनी सीट बचा पाएगी

झारखंड के सियासी रण में बसपा भी किस्मत आजमाने उतरी है। प्रदेश में 30 फीसदी आदिवासी और 12 फीसदी दलित समुदाय होने के बावजूद बसपा यहां कोई बड़ा करिश्मा नहीं दिखा सकी है। बसपा ने 2014 में हुसैनाबाद सीट जीतने में कामयाब रही है, लेकिन इस बार मायावती ने मौजूदा विधायक का कुशवाहा महतो का टिकट काटकर शेर अली पर दांव खेला है। इसके चलते महतो ने आजसू का दामन थाम लिया है। ऐसे में अब देखना है कि मायावती 27 नवंबर को चुनावी हुसैनाबाद में करने के बाद भी क्या अपनी एकलौती सीट बचा पाती हैं या नहीं।

जेएमएम का बढ़ता दबदबा

झारखंड में हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली जेएमएम राज्य में सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी का रुतबा पाने की कोशिश में लगी है। जेएमएम इस बार विपक्ष की अगुवाई कर रही है और हेमंत सोरेन विपक्ष के सीएम पद के दावेदार के रूप में सामने भी आ चुके हैं। विपक्षी गठबंधन में बड़ी पार्टी और हेमंत सोरेन को नेता बनवाने में जेएमएम को सफलता भी मिल चुकी है और कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद इसके लिए तैयार होने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बाद तय हुआ कि 42 सीटों पर जेएमएम लड़ेगी और बाकी पर कांग्रेस और आरजेडी चुनाव लड़ रह हैं। अब देखना है कि हेमंत सोरेन किंग बनते है या फिर किंगमेकर। 

 

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