भाई ने बेंच दी भैंसे, तो भाई को खेती-किसानी में होने लगी प्रॉब्लम, उसने भी बना लिया 'सुपर स्कूटर'

कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती हैं। जब तक कोई समस्या नहीं आती, उसका समाधान भी नहीं खोजा जाता। यह कहानी एक ऐसे किसान की सूझबूझ से जुड़ी है, जिसके भाई ने घर की दोनों भैसें बेच दी थीं। लिहाजा, दूसरे भाई को खेती-किसानी के लिए दूसरों से बैल मांगने पड़ रहे थे। लेकिन ऐसा कब तक चलता? यह भाई छोटा-मोटा गाड़ी मैकेनिक था। उसने कबाड़ से एक स्कूटर खरीदा और उसके इंजन से पॉवर टीलर (Power Tiller) बना दिया।

हजारीबाग, झारखंड. जिंदगी में अगर कुछ करने की ठान लो, तो असंभव भी संभव हो जाता है। यह देसी जुगाड़ की पॉवर टीलर भी इसी का उदाहरण है। अगर आप नई पावर टीलर खरीदेंगे, तो काफी महंगी पड़ेगी, लेकिन यह कुछ हजार रुपए में बनकर तैयार हो गई। इसमें कबाड़ से 3 हजार रुपए में खरीदा गया स्कूटर का इंजन लगा है। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी। जब तक कोई समस्या नहीं आती, उसका समाधान भी नहीं खोजा जाता। यह कहानी एक ऐसे किसान की सूझबूझ से जुड़ी है, जिसके भाई ने घर की दोनों भैसें बेच दी थीं। लिहाजा, दूसरे भाई को खेती-किसानी के लिए दूसरों से बैल मांगने पड़ रहे थे। लेकिन ऐसा कब तक चलता? यह भाई छोटा-मोटा गाड़ी मैकेनिक था। उसने कबाड़ से एक स्कूटर खरीदा और उसके इंजन से पॉवर टीलर (Power Tiller) बना दिया।

8 हजार में बन गया पॉवर टीलर..
यह मामला कुछ समय पुराना है, लेकिन इसे आपको इसलिए पढ़ा रहे हैं, ताकि मालूम चले कि असंभव को कैसे संभव किया जाता है। यह हैं हजारीबाग जिले के विष्णुगढ़ के उच्चघाना निवासी रमेश करमाली। ये संयुक्त परिवार में रहते थे। लेकिन एक दिन इनके छोटे भाई ने मजबूरी में अपनी दोनों भैंसें बेच दीं। भैंसें खेतों की जुताई में भी काम आती थीं। लिहाजा, रमेश को अपने खेत जोतने में दिक्कत होने लगी। कुद समय तो उन्होंने दूसरों से बैल लेकर काम चलाया, लेकिन ऐसा कब तक चलता। रमेश एक छोटे-मोटे मैकेनिक भी रहे हैं। उन्होंने तीन हजार में कबाड़ से एक स्कूटर खरीदा और पांच हजार रुपए और खर्च करके देसी जुगाड़ से पॉवर टीलर बना लिया। 

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कम खर्च में खेतों की जुताई..
यह पॉवर टीलर दस गुने कम खर्च पर खेतों की जुताई कर रहा है। यानी ढाई लीटर पेट्रोल में पांच घंटे तक खेतों की जुताई कर सकता है। रमेश तीन भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। तीन साल की उम्र में वे पिता के साथ पुणे चले गए थे। पिता वहां मजदूरी करते थे। 1995 में रमेश बजाज शोरूम पर काम करने लगे। 2005-06 में बजाज कंपनी से मैकेनिक की ट्रेनिंग ली। लेकिन कम पढ़े-लिखे होने से उन्हें जॉब नहीं मिली, तो वे गांव लौट आए। यह कहानी यह बताती है कि समस्याओं का समाधान आपके नजरिये से जुड़ा है।

यहां बच्चों ने दिमाग दौड़ा कर बना डाला POOL

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