
जन्माष्टमी का त्योहार पूरे भारत में बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने वाला यह पर्व सिर्फ उपवास, मटकी फोड़ और झांकी सजाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें कई पारंपरिक रीति-रिवाज भी निभाए जाते हैं। इनमें से एक है जन्माष्टमी पर खीरा काटना। आपने अक्सर देखा होगा कि मध्यरात्रि में जन्मोत्सव के दौरान भगवान को खीरा चढ़ाया जाता है और फिर उसे काटकर बांटा जाता है। लेकिन आखिर क्यों? आइए जानते हैं इस रीचुअल की असली वजह, जो धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ वैज्ञानिक पहलू भी रखती है।
हिंदू शास्त्रों में खीरे का संबंध जन्म और प्रजनन से जोड़ा गया है। कहा जाता है कि खीरे में बीज होते हैं और ये बीज जीवन के चक्र का प्रतीक माने जाते हैं। जन्माष्टमी पर खीरा काटने का अर्थ जीवन का जन्म और नवजीवन की शुरुआत है। जैसे खीरे में अनगिनत बीज होते हैं, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से जीवन में समृद्धि और संतान सुख बढ़ता है। साथ ही बीज का संरक्षित रहना वंश वृद्धि और परिवार की ग्रोथ का साइन है।
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जन्माष्टमी आमतौर पर भाद्रपद मास में आती है, जब मौसम बरसात से बदलकर ठंड की ओर बढ़ रहा होता है। इस समय शरीर में गर्मी और नमी का संतुलन बिगड़ सकता है। ऐसे खीरा ठंडा होता है यह शरीर का तापमान कम करता है और डिहाइड्रेशन से बचाता है। उपवास के बाद खीरा खाना पाचन को आसान बनाता है और गैस्ट्रिक समस्याओं से बचाता है। वहीं खीरा डिटॉक्सिफिकेशन में मदद करता है। इसमें पानी की मात्रा 95% तक होती है, जिससे शरीर से टॉक्सिन्स बाहर निकलते हैं।
दरअसल, उस पौराणिक प्रसंग से जुड़ा है जिसमें कहा गया है कि श्रीकृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में कारागार में हुआ और उन्हें सुरक्षित गोकुल पहुंचाया गया। खीरे का कठोर बाहरी आवरण और अंदर का मीठा-रसदार हिस्सा उस सुरक्षा और दिव्यता का प्रतीक है, जिसमें कठिन परिस्थितियों के बीच भी मधुरता और जीवन छिपा रहता है।
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उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में जन्माष्टमी पर खीरा काटना जरूरी रीति माना जाता है। कई जगह नवविवाहित जोड़े या निःसंतान दंपति विशेष पूजा कर खीरा अर्पित करते हैं, ताकि उन्हें संतान सुख प्राप्त हो। वहीं पूजा के बाद खीरा काटकर प्रसाद में बांटा जाता है, जिसे खाने से घर में सुख-शांति आने की मान्यता है।
खीरा काटने का रिवाज हमें यह भी सिखाता है कि बाहरी परिस्थितियां कैसी भी हों, भीतर शुद्धता, मधुरता और जीवनदायिनी ऊर्जा बनाए रखनी चाहिए। यह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की ही तरह है, जो विपरीत हालात में भी आनंद, प्रेम और करुणा का संदेश देते हैं।