साहिल से बच सकती थी साक्षी की जान! अगर लोग 'बाईस्टैंडर इफेक्ट' के नहीं हुए होते शिकार

Published : May 30, 2023, 04:43 PM IST
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सार

दिल्ली में एक लड़की की बेरहमी से हत्या सिरफिरे आशिक ने कर दी। वारदात के वक्त वहां कई लोग मौजूद थे। लेकिन किस ने कातिल को रोकने की कोशिश की। आखिर क्यों लोग इस तरह की घटना में डरपोक बन जाते हैं और इसके मनोविज्ञान में क्या कहा जाता है। आइए जानते हैं। 

हेल्थ डेस्क. दिल्ली के शाहबाद डेयरी इलाके में रविवार (28 मई ) को एक लड़की बीच सड़क पर लहूलुहान होकर दम तोड़ दी। कातिल को लोगों ने चाकू से उसपर ताबड़तोड़ हमला करते हुए देखा, लेकिन किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की। हत्या का सीसीटीवी वीडियो सामने आने के बाद फिर से बहस छिड़ गई है कि लोगों के अंदर इतनी इंसानियत नहीं बची कि वो हिम्मत दिखाते हुए कातिल को रोक सकें। दरअसल, इसे बाईस्टैंडर इफेक्ट कहते हैं। ऐसा भीड़ की वजह से होता है।

28 मई को साहिल खान की अपनी प्रेमिका साक्षी के साथ किसी बात को लेकर बहस हो गई। इसके बाद 16 साल की लड़की उसे छोड़कर दोस्त के बेटे के जन्मदिन में शामिल होने के लिए निकल पड़ी। लेकिन रास्ते में सिरफिरे आशिक ने उसे घेर लिया। वहां पर भी दोनों की पहले तूतू मैं मैं हुई। इसके बाद साहिल पर मानों खून सवार हो गया। उसने एक के बाद एक 16 बार उसपर चाकू से वार किया। इसके बाद पत्थर से भी मारा। हैरानी की बात ये थी कि वहां मौजूद किसी ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की। सब मूकदर्शक बनकर देखते रहें।

भीड़ में मदद की संभावना कम हो जाती है

मनोविज्ञान में इसे बाईस्टैंडर इफेक्ट कहते हैं। साइकोलॉजी की ये थ्योरी कहती है कि जब भी भीड़ में कोई हादसा या कत्ल होता है। तो लोगों में मदद की भावना कम हो जाती है। यानी पीड़ित को मदद मिलने की उम्मीद कम हो जाती है। जबकि अगर अकेला इंसान किसी को मुसीबत में फंसा देखता है तो बहुत ज्यादा चांसेज होते हैं कि वो उसकी मदद के लिए कदम बढ़ा लें।

40 लोगों ने मूकदर्शक बनकर युवती का रेप और हत्या की वारदात देखी

लैब में इसे लेकर एक प्रयोग किया गया। जिसके बाद ऐसा अनुमान लगाया जाता है। 1964 में एक युवती के साथ ऐसा ही मामला देखने को मिला था। मार्च के महीने में अमेरिकी लड़की किटी गेनोवीज अपने अपार्टमेंट में काम के बाद पहुंची। लेकिन वो घर के अंदर कदम नहीं रख सकीं। घर के सामने उसपर किसी ने हमला कर दिया। उसका रेप किया फिर चाकू से बुरी तरह उसे गोदकर मार डाला। 20 मिनट तक सड़क पर ये सबकुछ होता रहा। इतना ही नहीं 40 लोग अपने घरों से सबकुछ देख रहे थे। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि जाकर लड़की को बचा लें। जब लड़की मर गई तब पुलिस के पास पहला कॉल गया।

लोगों के अंदर गायब हिम्मत को लेकर किया गया प्रयोग

यह घटना पूरे साल छाया रहा। लोगों को लताड़ लगाई गई जो इस वारदात को देखते हुए भी कुछ नहीं किए। डरे हुए लोगों की बीमारी को गेनोवीज सिंड्रोम नाम दे दिया। लेकिन चार साल बाद मनोवैज्ञानिकों ने इसपर पहला प्रयोग किया। इसके लिए कुछ लोगों को एक कमरे में बिठाकर इंतजार करने के लिए बोला गया। थोड़ी देर बाद वहां पर धुंआ भरने लगा। लोगों को सांस लेने में दिक्कत होने लगी। वो खांसने लगे। लेकिन 38 प्रतिशत लोगों के अलावा किसी ने इसे लेकर कोई शिकायत नहीं की कि कमरे में कोई दिक्कत है। इसके बाद दूसरा प्रयोग किया गया। इस दौरान लोगों को अकेले अलग-अलग कमरे में रखा गया। फिर धुआं छोड़ा गया। रिजल्ट हैरान करने वाला था। 75 प्रतिशत लोगों ने धुआं होने की शिकायत की।

भीड़ में डरपोक हो जाते हैं लोग

इसके बाद एक और एक्सपेरिमेंट किया गया। महिला को खतरे में दिखाया गया। भीड़ में देखा गया कि 40 प्रतिशत लोग ही हेल्प करने के लिए आगे आए। 60 प्रतिशत लोग चुपचाप देखते रहें। लेकिन जब एक अकेला इंसान होता है तो वो हिम्मत जुटाकर पीड़ित की मदद करने पहुंच जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भीड़ में कोई भी अपने ऊपर जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है। सब एक दूसरे की मुंह ताकते हैं कि वो आगे बढ़कर मदद करेगा। इतना ही नहीं लोग खुद को ज्यादा सभ्य दिखाना चाहते हैं इसलिए मदद के लिए आगे नहीं जाते हैं। अगर कोई किसी को मार रहा है तो ये उसका निजी मामला मानकर लोग देखते हुए आगे बढ़ जाते हैं। बाईस्टैंडर इफेक्ट इसी को कहते हैं।

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