2-3 दिसंबर 1984 की सुबह शायद ही कोई भूल पाए। खासकर वो लोग, जिन्होंने उस काली सुबह को भोगा है। अपनी आंखों से गली-चौराहे पर पड़ीं लाशों को देखा है। रोते-बिलखते और यहां-वहां भागते लोगों का सामना किया है। पढ़िए 'भोपाल गैस कांड' से जुड़े कुछ किस्से...
भोपाल. 2-3 दिसंबर 1984 की सुबह भोपालवासी कभी नहीं भूल सकते। जिन्होंने दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी को भोगा है, वे मरते दम तक 'भोपाल कांड' को चाहकर भी नहीं भुला पाएंगे। किस्से भोपाल गैस कांड के वक्त नायब तहसीलदार रहीं शमीम जहरा ने शेयर किए हैं। शमीम के पति स्वर्गीय शकील रजा तब शहडोल के एसपी थे। जहरा 2009 में भोपाल से डिप्टी कलेक्टर की पोस्ट से सेवानिवृत्त हुई हैं। पढ़िए भोपाल त्रासदी और उसके बाद की कहानी, उनकी आंखों देखी जुबानी...
2-3 दिसम्बर 1984 की सुबह 4.30 A M
2-3 दिसंबर की दरमियानी रात को घर में सब लोग सोए हुए थे। मेरे सास-ससुर सुबह 4 बजे नमाज़ के लिए उठते थे। उनको आंखों में जलन महसूस हुई। आंखों से पानी बहने लगा। वज़ू करते हुए उन्होंने देर तक आंखें और चेहरा धोया, तब कुछ राहत हुई। मेरी ननद के बेटे को बिस्तर में सोए हुए भी आंखों में जलन महसूस हुई। उसने मुझसे पूछा, नानी अम्मी सुबह-सुबह प्याज़ क्यों काट रही हो? बाद में मुझे हादसे का पता चला। शहर के हालात बहुत खराब थे। खबरें थीं कि हजारों लोग मर गए थे। न सिर्फ इंसान, बल्कि मरे हुए कुत्ते, गाय ,भैंसें, चूहे, चिड़ियां आदि भी जगह-जगह पड़े हुए थे। पेड़ों के पत्ते पीले होकर तेजी से गिर रहे थे। भोपाल जैसे मुर्दों की बस्ती हो गया था। हमीदिया अस्पताल मरीजों से भर गया था। दो-तीन दिन तो अफरातफ़री में ही गुज़र गए। पानी, सब्ज़ियां, हवा सब जहरीला लग रहा था। मेरे पति उस समय शहडोल जिले में एसपी थे। मेरी पदस्थापना भोपाल में नायब तहसीलदार के पद पर थी। उस वक्त मैं बीमार होने से कई दिन से अवकाश पर थी।
15 दिसम्बर 1984
शाम का दृश्य अजीब था। लोगों से भरी रहने वाली सड़कें सुनसान थीं। हवा की सांय-सांय और सूखे पत्तों के उड़ने की आवाज़ ही सुनाई देती थी। पेड़ों से समय पूर्व पतझड़ हो चुका था। कई दिन से भोपाल ख़ाली करने के लिए ऐलान हो रहे थे। लोग बसों-ट्रेनों और अपने-अपने साधनों से शहर छोड़ गए थे। मैं उस शाम को बच्चों को और मेरी सास को शहडोल जाने के लिए स्टेशन पर ट्रेन में बैठा कर लौटी थी। उन्हें अपने पति के पास भेज दिया था। इधर, शहर का माहौल देखकर मैं दहशत में थी। 16 दिसम्बर को सरकार द्वारा मिक गैस का प्रभाव ख़त्म किया जाना था। यह वही गैस थी, जो हज़ारों की जान ले चुकी थी। जिस ने हज़ारों लोगों को मौत से बदतर हाल में छोड़ दिया था। हवाओं की आवाज़ मातम लगती थी, भोपाल ख़त्म सा हो गया था। कल पता नहीं क्या हो, क्या बच्चों से दोबारा मिलना होगा? बार-बार ये ख़्याल आते रहे। घर पर मैं और मेरे ससुर ही थे।
16 दिसम्बर 1984
सुबह 9-10 बजे आसमान में हेलीकॉप्टर उड़ते दिखाई दिए, जो शायद पानी बरसा रहे थे। हमारी छत से वे बार-बार चक्कर लगाते हुए नज़र आ रहे थे। मुझे समझ में नहीं आया कि इसके लिए शहर क्यों ख़ाली कराया गया? 16 दिसम्बर के बाद धीरे-धीरे बीमार और परेशान लोग घर लौटने लगे थे। मैंने घर के लोगों के मना करने के बावजूद ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी। हमीदिया अस्पताल और जेपी नगर (वह इलाका जहां सबसे ज्यादा लोग मरे तथा बीमार हुए थे) में राहत सामग्री पहुंचाने, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आगमन आदि कार्यों में मेरी ड्यूटी रही।
26 मार्च 1985
हम चार अधिकारी डीके व्यास, एचजी शर्मा, एनसी टंडन और मैं गैस त्रासदी में मरने वालों के उत्तराधिकारियों की जांच करने के लिए एग्जिक्यूटिव मजिस्ट्रेट नियुक्त किए गए थे। कलेक्टर आफिस में कंट्रोल रूम बनाया गया था। जहां हम लोग एक ही बड़े हाल में थोड़े-थोड़े से फ़ासले पर बैठते थे। अंदर और बाहर बीमार और परेशान लोगों का हुजूम था। उसी भीड़ में तरह तरह के विदेशी चेहरे कैमरा लटकाए फ़ोटो खींचते हम तक पहुंचने और सवाल पूछने की कोशिश करते। किंतु हम उनके किसी सवाल का जवाब न देकर गैस के शिकार लोगों की मदद में व्यस्त रहते। मरने वालों की फ़ोटो सहित कम्प्यूटर सूचियां बनाई गई थीं। उनकी पहचान और उनके वारिसों की तलाश और प्रमाणीकरण किया जाना था। लोगों की आंखें लाल थीं। वे खांस रहे थे। पूरा हॉल अजब सी दुर्गन्ध से भरा रहता था। अपनों की तलाश में लोग सूचियों को देख रहे थे। जिनके मृतक पहचान में आ गए थे, उनके बयान दर्ज किए जाते थे। औरतें कई बार देर तक रोती रहती थीं। वे कुछ भी बोल नहीं पाती थीं उनके बच्चों ने उनके सामने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया था। उनके दर्द को महसूस कर बयान लिखना मुश्किल हो जाता था।
एक व्यक्ति, जिसका मैंने बयान दर्ज किया कि वह गैस लीकेज के समय अपनी मां-पत्नि और तीन बच्चों के साथ रात को भीड़ के साथ भागा था। लेकिन अंधाधुंध भागती हुई भीड़ में वह सड़क पर गिर गया। उसके ऊपर से भीड़ भागती रही। पैर बुरी तरह कुचल गया और वह बेहोश हो गया। उसका परिवार बिछड़ गया। जब उसको होश आया तब वह भारी बोझ के नीचे दबा था, जिससे निकलने की भरसक कोशिश करने पर उसने पाया कि वह लाशों के ढेर मे दबा था।
दरअसल, लाशों को औऱ मरीज़ों को अस्पताल पहुंचाने वालों ने उसे मुर्दा समझ कर अस्पताल के मरचुरी (मुर्दाघर) में जमा कर दिया था जहां लाशों के ढेर लगे थे और लगातार आने वाली लाशों का अम्बार उस पर लग गया था। उसका एक पैर टूट चुका था। फिर भी वह अपनी पूरी ताक़त इकट्ठी कर घिसटता हुआ गेट तक पहुंचा, जो बंद था। दरवाज़ा पीटने पर दरवाज़ा खोलने वाला व्यक्ति चीख़ मारता हुआ भाग गया। इसने चिल्लाने व पुकारने की कोशिश की और आख़िर फिर बेहोश हो गया।
जब पुन: होश आया तब वह अस्पताल के बेड पर था। उसका एक पैर ऑपरेशन से काटा जा चुका था। अब अस्पताल से छुट्टी करा के वह अपने परिवार को तलाश रहा था। मृतकों की सूची में उसकी मां को उसने ढूंढ लिया था लेकिन उसकी पत्नि और बच्चों का कुछ पता नहीं चला। वह जब घर से भागा था, तब घर खुला छूट गया था। जब वह वापिस घर गया, तो उसके घर का तमाम सामान चोरी हो चुका था। वह व्यक्ति रोता जाता था और खांसी से बेहाल हो रहा था।
सुबह 9 बजे से शाम तक पसीने-पसीने हम भीड़ से घिरे रहते। इस तरह के बयान कलमबंद करते रहते। लोग हमारे चारों तरफ़ खांसते और रोते रहते। उनकी लाल आंखों से पानी बहता रहता। कभी वेरीफ़िकेशन के लिए गैस प्रभावित बस्तियों में घूमते। धीरे-धीरे मेरी आंखें भी लाल रहने लगीं। उनसे पानी बहने लगा। खांसी भी धीरे-धीरे बढ़ती चली गई। हाथों पर चकत्ते से पड़ने लगे, जिनमें खुजली भी होती थी। अधिक बीमार हो जाने पर मुझे दो माह बाद अवकाश पर जाना पड़ा।