हर पार्टी में टंडनजी को चाहनेवालों की भरमार, एक्सपर्ट बोले, चला गया हरदिल अजीज़ नेता

वरिष्ठ पत्रकार  डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने लिखा कि श्री लालजी टंडन-जैसे कितने नेता आज भारत में हैं ? वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में अपनी युवा अवस्था से ही हैं लेकिन उनके मित्र, प्रेमी और प्रशंसक किस पार्टी में नहीं हैं ? क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी, क्या बहुजन समाज पार्टी-- हर पार्टी में टंडनजी को चाहनेवालों की भरमार है। टंडनजी संघ, जनसंघ और भाजपा से कभी एक क्षण के लिए विमुख नहीं हुए। यदि वे अवसरवादी होते तो हर पार्टी उनका स्वागत करती और उन्हें पद की लालसा होती तो वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कभी के बन गए होते। वे पार्षद रहे, विधायक बने, सांसद हुए, मंत्री बने और अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल हैं। जो भी पद या अवसर उन्हें सहज भाव से मिलता गया, उसे वे विन्रमतापूर्वक स्वीकार करते गए। उत्तरप्रदेश की राजनीति जातिवाद के लिए काफी बदनाम है। वहां का हर बड़ा नेता जातिवाद की बंसरी बजाकर ही अपनी दुकानदारी जमा पाता है लेकिन टंडनजी हैं कि उनकी राजनीति संकीर्ण सांप्रदायिकता और जातीयता के दायरों को तोड़कर उनके पार चली जाती है। इसीलिए वे हरदिल अजीज़ नेता रहे हैं।

Asianet News Hindi | Published : Jul 21, 2020 1:05 PM IST / Updated: Jul 21 2020, 07:13 PM IST

वरिष्ठ पत्रकार  डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने लिखा कि श्री लालजी टंडन-जैसे कितने नेता आज भारत में हैं ? वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में अपनी युवा अवस्था से ही हैं लेकिन उनके मित्र, प्रेमी और प्रशंसक किस पार्टी में नहीं हैं ? क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी, क्या बहुजन समाज पार्टी-- हर पार्टी में टंडनजी को चाहनेवालों की भरमार है। टंडनजी संघ, जनसंघ और भाजपा से कभी एक क्षण के लिए विमुख नहीं हुए। यदि वे अवसरवादी होते तो हर पार्टी उनका स्वागत करती और उन्हें पद की लालसा होती तो वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कभी के बन गए होते। वे पार्षद रहे, विधायक बने, सांसद हुए, मंत्री बने और अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल हैं। जो भी पद या अवसर उन्हें सहज भाव से मिलता गया, उसे वे विन्रमतापूर्वक स्वीकार करते गए। उत्तरप्रदेश की राजनीति जातिवाद के लिए काफी बदनाम है। वहां का हर बड़ा नेता जातिवाद की बंसरी बजाकर ही अपनी दुकानदारी जमा पाता है लेकिन टंडनजी हैं कि उनकी राजनीति संकीर्ण सांप्रदायिकता और जातीयता के दायरों को तोड़कर उनके पार चली जाती है। इसीलिए वे हरदिल अजीज़ नेता रहे हैं।

टंडनजी से मेरी भेंट कई वर्षों पहले अटलजी के घर पर हो जाया करती थी। उसे भेंट कहें या बस नमस्कार—चमत्कार ? उनसे असली भेंट अभी कुछ माह पहले भोपाल में हुई जब मैं किसी पत्रकारिता समारोह में व्याख्यान देने वहां गया हुआ था। आपको आश्चर्य होगा कि वह भेंट साढ़े चार घंटे तक चली। न वे थके और न ही मैं थका। मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे 65-70 साल के सार्वजनिक जीवन में किसी कुर्सीवान नेता याने किसी पदासीन भारतीय नेता से मेरी इतनी लंबी मुलाकात हुई हो।

टंडनजी की खूबी यह थी कि वे जनसंघ और भाजपा के कट्टर सदस्य रहते हुए उनके विरोधी नेताओं के भी प्रेमभाजन रहे। उनके किन-किन नेताओं से संबंध नहीं रहे ? आप यदि उनकी पुस्तक ‘स्मृतिनाद’ पढ़ें तो आपको टंडनजी के सर्वप्रिय व्यक्तित्व का पता तो चलेगा ही, भारत के सम-सामयिक इतिहास की ऐसी रोचक परतें भी खुल जाएंगी कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। 284 पृष्ठ का यह ग्रंथ छप गया है लेकिन अभी इसका विमोचन नहीं हुआ है। टंडनजी ने यह सौभाग्य मुझे प्रदान किया कि इस ग्रंथ की भूमिका मैं लिखूं। इस ग्रंथ में उन्होंने 40-45 नेताओं, साहित्यकारों, समाजसेवियों और नौकरशाहों आदि पर अपने संस्मरण लिखे हैं। ये संस्मरण क्या हैं, ये सम-सामयिक इतिहास पर शोध करनेवालों के लिए प्राथमिक स्त्रोत हैं। उनकी इच्छा थी कि इस पुस्तक का विमोचन दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में भी हो।

टंडनजी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।

 

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