कोरोना ने तोड़ी 75 साल पुरानी परंपरा: इंदौर में नहीं होगा रंगपंचमी जश्न, दंगों में भी नहीं थमा था सिलसिला


रंगपंचमी पर गेर की परंपरा तो आपातकाल में भी निरस्त नहीं हुई। इतना ही नहीं दंगों और भीषण सूखे के दौर में भी गेर का सिलसिला जारी रहा। लेकिन इदौंर प्रशासन ने फैसला किया कि इस बार भी पिछले साल की तरह रंगपंचमी पर ऐतिहासिक गेर नहीं निकलेगी।


इंदौर. जब कभी रंगपंचमी या होली के त्यौहार की बात हो और इंदौर की विश्व प्रसिद्ध रंगपंचमी गेर की बात ना हो ऐसा हो नहीं सकता है। जिसके लिए लोग महीनों से इंतजार करते हैं। विदेश से भी लोग इसका लुत्फ उठाने के लिए आते हैं। लेकिन, फिर से कोरोना के कहर के चलते बुरी खबर सामने आई है। इदौंर प्रशासन ने फैसला किया कि इस बार भी पिछले साल की तरह रंगपंचमी पर ऐतिहासिक गेर नहीं निकलेगी। बता दें कि 75 साल में ऐसा दूसरी बार हो रहा है जब रंगपंचमी पर गेर की धूम नहीं देखने को मिलेगी।

कलेक्टर को इस वजह लेना पड़ा फैसला
दरअसल, मगंलवार को इंदौर में हुए क्राइसिस मैनेजमेंट की बैठक में इस बार रंगपंचमी पर ऐतिहासिक गेर नहीं निकलेने का फैसला किया। इस मीटिंग में शहर कलेक्टर मनीष सिंह भी मौजूद थे। उन्होंने मीडिया को बताया कि कोरोना केस बढ़ने के चलते ऐसा करना पड़ा है। सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजर अनिवार्य किया गया है, जिसके चलते गेर भी अनुमति नहीं दी जाएगी।अब इंदौर में लोगों को मास्क लगाना अनिवार्य किया गया है। अगर इसके बाद भी किसी ने गाइडलाइन को फॉलो नहीं किया तो हम फाइन लगाने के बारे में सोच सकते हैं। साथ ही शहर में कोई भी बड़ा आयोजन शादी समारोह में सिर्फ 50 लोग ही शामिल हो पाएंगे।

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दंगों और भीषण सूखे के दौर में निकली गेर
रंगपंचमी पर गेर की परंपरा तो आपातकाल में भी निरस्त नहीं हुई। इतना ही नहीं दंगों और भीषण सूखे के दौर में भी गेर का सिलसिला जारी रहा। बताया जाता है कि 90 के दशक में जब रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान इंदौर में दंगे हुए थे उस समय भी गेर निरस्त नहीं हुई थी। लोगों को लगने लगा था कि इस बार तो गेर नहीं निकलेगी। कहीं प्रशासन गेर निरस्त न करवा दे। उस समय कलेक्टर नरेश नारद थे। लेकिन थोड़ा माहौल बदला कम लोग गेर में शामिल हुए, फिर भी रंगारंग कार्यक्रम हुआ।

होलकर राजवंश ने शुरू की थी गेर की परंपरा
बता दें कि रंगपंचमी पर्व का इतिहास काफी पुराना है। इंदौर शहर में इसे प्राचीनकाल से मनाया जाता है। बताया जाता है कि प्राचीन समय में होली का उत्सव की परंपरा उस दौरान शुरू हुई थी जब होलकर वंश के लोग होली खेलने के लिए रंगपंचमी के मौके पर सड़कों पर निकलते थे। उस समय बैलगाड़ियों का बड़ा काफिला होता था, जहां लोग टेस के फूलों से और हर्बल चीजों से रंक तैयार करके गाड़ियों में कड़ाई रखते थे। जो भी उनको रास्ते में मिलता था उसे रंग लगा देते थे। लोग बड़ी बड़ी पिचकारियों में रंग भर के लोगों को ऊपर बरसाते थे। इस परंपरा का मकसद था कि हर वर्ग के लोगों को इसमें शामिल करके बुराई भूलकर एकता के साथ त्यौहार मनाना। राजे-रजबाड़ों का शासन खत्म होने के बाद भी आज तक इस परंपरा को शहर के लोगो ने जिंदा रखा है। लेकिन कोरोना के कहर में इस बार इस उत्सव का सिलसिला थम जाएगा।

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