महाराष्ट्र में शरद पवार का दूसरा विकल्प नहीं, इन वजहों से असंभव करिश्मा कर दिखाते हैं मराठा क्षत्रप

1989 से 1991 तक दोबारा मुख्यमंत्री रहे पवार का नाम राजीव गांधी की हत्या के बाद बनी कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री पद के लिए चला तो, लेकिन बाजी हाथ रही दक्षिण के ब्राह्मण कुल में जन्मे पीवी नरसिम्हा राव के। यहां भी पवार समर्थकों के भीतर एक सहानुभूति लहर चली। उन दिनों केंद्र की राजनीति  में बुला लिए गए पवार को फिर से 1993 में राज्य का मुखिया बनाया गया।

संजीव चन्दन

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव परिणाम की एक बड़ी परिघटना है 78 वर्ष के मराठा क्षत्रप शरद पवार द्वारा राज्य की राजनीति में खुद की अनिवार्यता सिद्ध करना। चुनाव से पहले की राजनीति और जांच एजेंसियों से चौतरफा घिरे शरद पवार के बारे में ऐसा लगने लगा था कि उनकी राजनीति अब खत्म हो जाएगी। उनके 24 सीटिंग विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके थे। एक कॉर्पोरेशन की उनकी सत्ता भी रातोरात भाजपा के पास चली गई थी। उनके प्रभाव क्षेत्र सातारा के उनके सांसद शिवाजी महाराज के 13वें वंशज उदयनराजे भोसले ने भी उनका साथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था।

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78 वर्ष के बूढ़े मराठा ने चुनावी रैली के दौरान बरसात में भीगते हुए भाषण दिया (छाता लेने से इनकार कर दिया) और संसदीय उपचुनाव में न सिर्फ अपने बागी साथी भोसले को हराया। बल्कि प्रधानमंत्री की सभा के बावजूद सातारा जिले से एनसीपी और कांग्रेस को चार विधानसभा सीटें भी दिलाने में कामयाब हुए। हालांकि 2014 में सातारा जिले से एनसीपी के 5 विधायक थे. यहां न सिर्फ पीएम की सभा हुई थी बल्कि यहां जनता की भावनाओं को सहलाते हुए सातारा के ही एक निवासी सावरकर को भारत रत्न देने की घोषणा राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी बन गई।

चाहने वाले असंख्य

आजादी के पूर्व से लेकर संयुक्त महाराष्ट्र के दिनों तक पुणे की राजनीति में सक्रिय अपनी माता ,शारदा पवार, की विरासत लेकर  शरदचंद्र गोविंदराव पवार, महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले 5-6 दशकों से पर्याय बने हुए हैं, एक बड़े समूह के लिए भक्ति के स्तर तक प्रशंसा के पात्र , राजनीति के सहयात्रियों के आदर्श और इर्ष्या के पात्र तो एक बड़े समूह के लिए नफरत की हद तक निंदा के पात्र भी। पिछले कई महीनों से सर्वथा गलत कारणों से चर्चा में रह रहे शरद पवार की राजनीति जन स्मृतियों में मिथकीय संसार गढ़ती है। पिछले कुछ महीनों से ईडी की तलवार उनपर और उनकी पार्टी के कद्दावर नेताओं, अजीत पवार और प्रफुल्ल पटेल पर, लटक रही थी। उन्हें ईडी समन कर रहा था।

न जाने कितनी कहानियां मिथ और विश्वास “साहेब” के नाम से महराष्ट्र में ख्यात इस राजनीतिज्ञ के व्यक्तित्व के तमगे बनते गए, और इसके साथ ही इस रहस्य लोक में सुरक्षित 70 के दशक का वाचाल जनप्रिय राजनेता परदे के पीछे का घाघ खिलाड़ी माना जाने लगा जबकि स्वयं वह कभी समय-कुसमय टिप्पणियों से बचते हुए पब्लिक स्फीअर में अपनी घाघ छवि के साथ क्रिकेट की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मशगूल रहने लगा था।

संपत्तियों को लेकर हुई हैं ऐसी चर्चाएं

महज 27 साल की उम्र में बारामती से 1967 में महाराष्ट्र की विधानसभा में पहुंचने वाले “साहेब “ (शरद पवार ) के विषय में महाराष्ट्र के लोगों में एक मिथकीय विश्वास है कि उनके पास ज्ञात–अज्ञात इतनी संपत्ति है कि वे अगले पांच साल तक मुम्बई का बजट संभाल सकते हैं। मिथकीय इसलिए कि इन विश्वासों के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है। अपराधियों के साथ गठजोड़, तेलगी से लेकर बलवा जैसे  भ्रष्टाचारियों से संबंध, अपने परिवार के लिए अवैध भूमि आवंटन, कृषक विरोधी नीतियां ,आईपीएल में फ्रेंचाइजी और जनहित से अधिक क्रिकेट हित ,जैसे आरोप ही नहीं है इस राजनेता के हिस्से में,  बल्कि शरद पवार से प्यार करने वाले समूह के पास भी कारण हैं।

हाथ से निकला प्रधानमंत्री बनने का दूसरा मौका  

प्यार करने वाले समूह के अनुसार “पवार साहब’ की परंपरा समाजवादी धर्मनिरपेक्ष रही है, जातीवादी नहीं रही है, “पवार साहब’ को किसी ने कभी मंदिर–मस्जिद जाते नहीं देखा, किसी बाबा के आगे मत्थे टेकते नहीं देखा। इस  दीवाने समूह के विश्वास  बिना ठोस सबूतों के भी मिथ रचते हैं, जातीय षड़यंत्र के तर्क, कि “पवार साहब को जब 1991 में प्रधानमंत्री बनाने का मौका आया तो कांग्रेस में मजबूत मराठी ब्राह्मण लॉबी ने तब के कद्दावर नेता वसंत साठे और विठ्ठलराव राव गाडगील के साथ मिलकर सारा खेल बिगाड़ दिया, क्योंकि उन्हें बर्दाश्त नहीं था कि कोई पिछड़ा कुनबी जाति का नेता देश का नेतृत्व करे।”

महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा

हो सकता है कि इन विश्वासों में कोई ऐतिहासिक सच्चाई छिपी हो, मगर यही वे दो बराबर के पलड़े हैं, जिसने शारदा पवार के बेटे को पिछले 52 सालों से महाराष्ट्र की राजनीति में अपरिहार्य बना रखा है। शरद पवार अपनी महत्वाकांक्षाओं को समयानुकूल गति देते रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने की उनकी ख्वाहिश ने उन्हें सोनिया गांधी के विरोध में खड़ा करते हुए कांग्रेस से अलग कर एक नई पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी बनाने को प्रेरित किया। जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि राज्य की राजनीति में कांग्रेस के बिना वे सत्ता में नहीं रह सकते तो जिस सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर वे कांग्रेस से अलग हुए उनके साथ उन्होंने समझौता किया और कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के साथ केंद्र और राज्य की सत्ता में शामिल हुए।

दो पलड़ों के तराजू पर रखे हैं शरद पवार पर लगे आरोप और महाराष्ट्र की राजनीति में उनके योगदान,जिनके बीच बनती रही हैं जन स्मृतियां। अकूत संपत्ति के मालिक बताए जाने वाले शरद पवार पर आरोप कई बार लगते रहे हैं। बृहन मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के तत्कालीन उपायुक्त जी.आर. खैरनार ने पहली बार 1993 में पवार पर भ्रष्टाचार और अपराधियों से गठबंधन के आरोप लगाए। अन्ना हजारे ने उन्हीं दिनों पवार सरकार के तथाकथित भ्रष्ट  12 अफसरों के खिलाफ मुहीम चालाई। नागपुर में 1994 में गोवरी नरसंहार ( पुलिस कारवाई में 114 लोगों की मौत ) ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पवार की कार्य प्रणाली को कठघड़े में खड़ा कर दिया था।

तेलगी से कथित संबंध

2002-3 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक ने यह कह कर सनसनी फैला दी थी कि पवार उन पर अपराधी से नेता बने पप्पू कालानी के मसले पर ढील देने का दवाब बना रहे हैं। नाईक ने बाबरी मस्जिद कांड के बाद के मुंबई दंगो के आरोपी हितेंद्र ठाकुर से भी उनके रिश्ते के आरोप लगाए। स्टांप घोटाले के मुख्य आरोपी अब्दुल करीम तेलगी ने 6 हजार करोड़ रुपये के इस घोटाले की जांच के दौरान नार्को टेस्ट में शरद पवार और उनके करीबी नेता छगन भुजबल का तथाकथित तौर पर नाम लिया। पुणे में डी.बी. रियलिटी के निर्माण में हिस्सेदारी का आरोप भी उनपर रहा है। दरअसल इस निर्माण की जगह वही है (सर्वे न.191), जहां पवार परिवार के करीबी अतुल चोरडिया ने  पंचशील टेक पार्क का निर्माण किया है।

पवार पर लगा है किसान विरोधी का तमगा

महाराष्ट्र में बीजेपी से विपक्ष के नेता एकनाथ खडसे ने तो विधानसभा में शहीद बलवा के साथ पवार के रिश्ते और उसके  चार्टर्ड प्लेन में सफर पर खूब बबाल मचाया था। इसके पहले 2006 में बॉम्बे हाईकोर्ट में दर्ज एक पीआईएल में पवार और उनके परिवार के संस्थानों को औने पौने दाम में दी गई जमीन का मसला उठाया गया।

“साहेब’ पर किसान विरोधी कृषि मंत्री होने के आरोप लगते रहे हैं, जिनमें से पश्चिम महाराष्ट्र के चीनी मिलों के हित में निर्णय लेने के आरोप एक प्रकरण है। वैसे 2007 में गेहूं  की आयात नीति, 2009 और 2011 में चीनी और प्याज के अनियंत्रित मूल्य कृषि मंत्री “पवार" के प्रति जन आक्रोश निर्मित करने के प्रमुख कारक रहे हैं।

कांग्रेस मजबूरी थे शरद पवार

दूसरी ओर पवार समर्थकों की स्मृतियां उनके राजनीतिक परम्परा और  दुस्साहसों से बनती हैं। 38 वर्षीय पवार जब पहली बार 1978 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने तो कांग्रेस आई को चुनौती देते हुए उससे अलग आकर जनता पार्टी के समर्थन से प्रोगेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पुलोद –पुरोगामी लोकतंत्र दल ) के तहत बने। 1984 तक वे इंडियन कांग्रेस (समाजवादी ) को नेतृत्व देते रहे और 1985 में जब वे पुनः कांग्रेस में वापस आए तब माना यह गया कि शिवसेना की बढ़ती साम्प्रदायिक राजनीति  को रोकने के लिए इस कद्दावर नेता को कांग्रेस में वापस बुलाया गया है जबकि वह कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता को बार–बार चुनौती देने के लिए बना था और अपनी शर्तों पर अपना राजनीतिक अस्तित्व विशाल करने वाला था।

जब पहली बार प्रधानमंत्री बनने से चूके

1989 से 1991 तक दोबारा मुख्यमंत्री रहे पवार का नाम राजीव गांधी की हत्या के बाद बनी कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री पद के लिए चला तो, लेकिन बाजी हाथ रही दक्षिण के ब्राह्मण कुल में जन्मे पीवी नरसिम्हा राव के। यहां भी पवार समर्थकों के भीतर एक सहानुभूति लहर चली। उन दिनों केंद्र की राजनीति  में बुला लिए गए पवार को फिर से 1993 में राज्य का मुखिया बनाया गया। लेकिन तब तक शिवसेना बीजेपी के साथ हिंदुत्व की लहर पर सवार शक्तिशाली हो चुकी थी और पवार भी इस दौर में कई विवादों में फंसे। 1995 के विधानसभा चुनाव में पवार को मुंह की खानी पड़ी।

1998 में पवार ने हिंदी पट्टी में जनाधार खो चुकी कांग्रेस के लिए चमत्कार कर दिया। दलित नेतृत्व की पार्टी, आरपीआई और समाजवादी पार्टी के साथ उनके गठबंधन के प्रयोग ने 48 में से 37 सीटें कांग्रेस गठबंधन के खाते में डाल दी, जिनमें से चार सामान्य सीटों से चार कद्दावर दलित नेताओं को विजयी बनाकर उन्होंने राज्य की दलित अस्मिता की स्मृतियों में अपनी स्थायी जगह बना ली। केंद्र में विपक्ष का नेता रहते हुए पवार ने फिर से कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के चक्र भेदने की कोशिश की और पीए संगमा तथा तारिक अनवर के साथ स्वदेशी प्रधानमंत्री के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो गए।

पवार की अभेद्य किलेबंदी

पवार ने अपनी राजनीतिक किलेबंदी शिक्षा और सहकार क्षेत्र में अपने क्षत्रप खड़े कर की। सहकारी बैंक, चीनी मिल और शिक्षण संस्थान के अभेद्य किले के बीच पवार की राजनीतिक किलेबंदी ने उन्हें 70 और 80  के दशक के प्रखर नेतृत्व की करामत के साथ साथ परदे के पीछे का भी बड़ा खिलाड़ी बना दिया। धीरे-धीरे घाघ राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में तब्दील "साहेब"  ने क्रिकेट की अंतर्राष्टीय राजनीति को भी साध लिया,  उनके समर्थक उनके व्यक्तित्व  के कायल हैं। उनके अनुसार, “पश्चिम महारष्ट्र में पवार साहब के द्वारा खड़ा किया गया सहकार क्षेत्र किसानों के लिए आज भी उन्नत प्रयोग है। पवार साहब  के शिक्षण संसथान आज भी शिक्षण के आदर्श हैं।"

दरअसल, पवार 70-80 के दशक से शुरू हुए समाजवादी शैली के राजनीतिज्ञों में रहे हैं और अपने समय को प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वह समय था जब दूसरी आजादी, बहुजन भागीदारी, अस्मिताबोधी राजनीति के रास्ते राजनीतिज्ञों की एक पौध खड़ी हुई ,तो उधर समय दूसरे करवट भी ले रहा था। ढांचागत विकास में कटौती के साथ पूंजीवादी विकास के ताने- बाने बुने जा रहे थे, कल्याणकारी राज्य की बोरिया बिस्तर समेटे जाने की तैयारी तय हो चुकी थी। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर बैंको के राष्ट्रीयकरण से और गरीबी उन्मूलन के नारों से  दोहरी स्थितियां भी थीं। उधर देश की अर्थिक राजधानी में माफिया अपराध सुदृढ़ हो रहा था। ऐसे समय में पिछड़ी अस्मिता पर सवार पवार, मुलायम, लालू , करूणानिधि की राजनीति खड़ी हुई, जिनमें से लालू यादव को छोड़कर शेष सभी पूंजी के चकाचौंध रस्ते पर निकल गए।

पवार के पीछे की शक्ति

प्रत्यक्ष और परोक्ष में समान रूप से प्रभावी राजनीतिक बिसात बिछाने में माहिर पवार अब तक राजनीति और पूंजी के गठजोड़ के उदहारण बन गए। इस नए अवतार में अपराधिक संजाल से रिश्ते या मौन सहमतियां भी कोई आश्चर्य पैदा नहीं कर सकता। लेकिन सहकार और शिक्षा की जो फसल शरद पवार ने  बोई थी, इसके शेयर से जो करोड़पति क्षत्रपों के साथ एक नव धनाढ्य समूह पूरे राज्य में उनके पीछे खड़ा हुआ, वही “साहेब “ की राजनीति की प्राण उर्जा है। और इस बार भी जनता के साथ मिलकर उस प्राण उर्जा ने उन्हें एक बार फिर जीवन दान दे दिया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

 

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