
एशियानेट न्यूज के Mic’d Up With में हम आपको उन पुरुषों और महिलाओं से रूबरू कराएंगे जो आत्मनिर्भर भारत को रक्षा क्षेत्र में हकीकत बना रहे हैं। आज के मेहमान हैं Idea Forge के को-फाउंडर और CEO अंकित मेहता। एशियानेक्स्ट डिजिटल के कॉन्टेन्ट हेड अदित चार्ली से खास बातचीत में इन्होंने डिफेंस टेक्नोलॉजी, UAV (ड्रोन) के भविष्य और निगरानी तकनीक के बारे में विस्तार से बताया।
Idea Forge कंपनी करीब 20 साल पुरानी है। 2 साल पहले स्टॉक मार्केट में लिस्ट हुई है। आज कंपनी का वैल्यूएशन 2000 करोड़ रुपए से ज़्यादा है। 2005 में अंकित मेहता ने सफर शुरू किया, उस वक्त और भी बहुत से सेक्टर थे लेकिन इन्होंने UAVs, ड्रोन, डिफेंस को ही क्यों चुना? अंकित ने बताया- दरअसल, 2007 में हमने कंपनी को रजिस्टर किया। शुरू में ड्रोन को लेकर काम करने का इरादा नहीं था। हमने हैंड क्रैंक्ड चार्जर बनाने से शुरुआत की थी। मोबाइल चार्ज करने के लिए यह एक पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस था, जो ख़ासकर उन जगहों के लिए अच्छा ऑप्शन था, जहां बिजली ठीक से नहीं मिलती थी।
स्टूडेंट्स के तौर पर हम बहुत से प्रोजेक्ट करते रहते थे और IIT बॉम्बे (हमारा कॉलेज) हमें फंड करता था। उसी दौरान मैंने एक एनर्जी डिवाइस पर पेटेंट फ़ाइल किया। हमें लगा यह बिज़नेस शुरू करने के लिए सही जगह होगी और इसी वजह से नाम रखा- Idea Forge।
मज़े के लिए हम मोबाइल रोबोटिक्स पर भी प्रोजेक्ट करते थे। मेरे को-फाउंडर राहुल का आइडिया था कि एक होवरक्राफ्ट बनाकर मुंबई के पवई झील में चलाएं। यह 2004 की बात है। कुछ होवरक्राफ्ट प्रोटोटाइप बनाने के बाद हमें लगा और इनोवेटिव कुछ बनाना चाहिए। तभी 2004 में स्टूडेंट प्रोजेक्ट के तौर पर हमने क्वाडकॉप्टर ड्रोन बनाया, जो 4 रोटर्स वाला हेलिकॉप्टर जैसा था। वहीं से ड्रोन की यात्रा शुरू हुई, हालांकि हमने बिज़नेस की शुरुआत चार्जर्स से की थी।
26/11 हमले के बाद हमें लगा कि ड्रोन तकनीक से सुरक्षा बलों की मदद हो सकती है। तब 2009 में हमने पहला क्वाडकॉप्टर ड्रोन बनाया और 2010 से हम यह तकनीक सुरक्षा बलों को उपलब्ध करा रहे हैं।
ड्रोन के फ्यूचर, ऑपरेशन सिंदूर, भारत सरकार के ड्रोन अप्रोच पर अंकित मेहता ने खुलकर बात की। नीचे पढ़िए अदित चार्ली और अंकित मेहता के बीच बातचीत के अंश...
सवाल: ...तो असली ट्रिगर प्वाइंट 26/11 ही था?
जवाब: हां। हम पहले से टेक्नोलॉजी बना रहे थे। 2007 में हमने पहला ऑटोपायलट बनाया। मज़े की बात यह है कि दुनिया का पहला ओपन सोर्स ऑटोपायलट 2009 में आया, जबकि हमारा उससे पहले का है। IIT बॉम्बे की टीम ने MIT US के साथ मिलकर एक प्रतियोगिता में टॉप ऑनर्स जीते थे। इससे हमारी तकनीक रक्षा और रिसर्च लैब्स तक पहुंची। लेकिन असली प्रेरणा 26/11 थी। उस दौरान नेवी हेलिकॉप्टर होटल के फ़्लोर देखने की कोशिश कर रहे थे। हमें लगा अगर ड्रोन होते तो शायद यह काम ज़्यादा आसान होता। तब हमने सोचा कि इसे असली प्रोडक्ट के तौर पर भारतीय सुरक्षा बलों को दिया जाए।
सवाल: आपके पास किस तरह के प्रोडक्ट्स हैं? क्या भारत सरकार आपका सबसे बड़ा ग्राहक है?
जवाब: जी हां, सरकार हमारा सबसे बड़ा ग्राहक है। हमारी खासियत मैन-पोर्टेबल ड्रोन बनाने में है। यह इतने हल्के होते हैं कि एक सैनिक इन्हें बैकपैक में लेकर मैदान में जा सकता है और ISR यानी इंटेलिजेंस, सर्विलांस और रिकॉन्नैसेंस मिशन कर सकता है। हमारे ड्रोन बहुत हल्के और हाई परफ़ॉर्मेंस वाले होते हैं। उदाहरण के लिए सबसे भारी ड्रोन भी सिर्फ़ 7 किलो का था।
सवाल: आपके साथ तीन और को-फाउंडर्स हैं। आप लोग लगभग 15 साल से साथ हैं। क्या चीज़ें आपको एक साथ जोड़े रखती हैं। जब असहमति होती है तो आप उसे कैसे हल करते हैं?
जवाब: मेरा मानना है कि हमारी फ़ाउंडिंग टीम बहुत सक्षम है। हर एक को-फाउंडर अपने आप में सुपरस्टार है। इसलिए आप उनके साथ काम करना चाहते हैं क्योंकि आपको भरोसा होता है कि वे आपके काम में बड़ा बदलाव ला सकते हैं। सबसे ज़रूरी चीज़ जो आपको किसी को-फाउंडर या पार्टनर में देखनी चाहिए वो है- बिज़नेस के लिए कुछ करने की इच्छा। हमारे बीच बहस होती है, लेकिन वो बहस अपनी बात मनवाने के लिए नहीं होती बल्कि सही फ़ैसला लेने के लिए होती है। अगर कोई भी टीम बिज़नेस के रिजल्ट को सबसे ऊपर रखे तो समय थोड़ा ज़्यादा लग सकता है, लेकिन आख़िरकार आप ऑर्गेनाइजेशन के लिए सही काम कर पाते हैं। अलग-अलग राय आना कभी-कभी बिल्कुल उलटी दिशा में भी हो सकती है, लेकिन मैं उसे बोझ नहीं मानता। ये वक़्त का बोझ ज़रूर है, मगर लंबे समय में ये वैल्यू को बचाता है।
सवाल: भारतीय सेना जो ज़्यादातर ड्रोन इस्तेमाल करती है, क्या वो आपकी कंपनी से आते हैं?
जवाब: हां। मैन-पोर्टेबल ISR (इंटेलिजेंस, सर्विलांस, रिकॉन्नेसेंस) एक्टिविटीज के लिए।
सवाल: क्या आपके किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल ऑपरेशन सिंदूर या पहले के किसी ऑपरेशन में हुआ?
जवाब: जो फुटेज हमने देखे, उनमें हमारे टेक्नोलॉजी के कई रिप्रेज़ेंटेशन दिखे। जिनमें कुछ आधिकारिक विज़ुअल्स भी थे। हमारे ड्रोन का इस्तेमाल हुआ था और वो भी अच्छे नंबर में।
सवाल: आपका इंटरनेशनलाइज़ेशन और ग्लोबल एक्सपैंशन को लेकर क्या अप्रोच है?
जवाब: हमने यहां पर बहुत एडवांस्ड सॉल्यूशंस बनाए हैं। हमें लगता है कि हमने ऐसा टेक्नोलॉजी स्टैक तैयार किया है जो ग्लोबली भी अफेक्टिव है। हमें भरोसा है कि हमारे बनाए सॉल्यूशंस पूरी दुनिया में असरदार रहेंगे। जब आप इंडिया से किसी नए देश में जाते हैं, खासकर डिफेंस और ड्रोन स्पेस में, तो आपको तीन-चार चीज़ें करनी पड़ती हैं। सबसे पहले- आपको एक्सपोर्ट की परमिशन लेनी पड़ती है। इसमें समय लगता है और ये थोड़ा अनिश्चित होता है। लेकिन एक बार वहां पहुंचने के बाद भी आपको लोकलाइज़ेशन और यूज़र्स के हिसाब से एडजस्टमेंट करनी पड़ती है। हमने ये साइकल लगभग पूरा कर लिया है और हमें लगता है कि इंडिया में बने प्रोडक्ट्स का फ़ायदा ग्लोबली उठाया जा सकता है।
सवालः "स्वॉर्म ड्रोन" क्या होता है?
जवाब: इसका मतलब होता है दुश्मन को ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में ड्रोन से घेर लेना ताकि उनकी डिफेंस क्षमता ख़त्म हो जाए और कुछ ड्रोन आपका मिशन पूरा कर सके। उदाहरण- अगर आपको किसी एयर डिफेंस सिस्टम को नष्ट करना है और आपको पता है कि दुश्मन आपके कुछ ड्रोन गिरा देगा, लेकिन उनकी क्षमता सीमित होगी। ऐसे में आप इतना बड़ा हमला करते हैं कि कुछ ड्रोन ज़रूर बचकर निकल जाएं और टारगेट को हिट कर दें। यही स्वॉर्म का कॉन्सेप्ट है। लेकिन सर्च एंड रेस्क्यू में ये तकनीक अलग तरह से काम करती है। पूरा इलाका जल्दी से कवर करना, लोगों को ढूंढना और फिर बाकी एसेट्स को वहां ले जाना। मतलब, ये "कॉलैबोरेटिव ऑटोनॉमी" है।
सवाल: "रेज़िलिएंस कैपेबिलिटीज़" को आप कैसे देखते हैं?
जवाब: आजकल की जंग में ड्रोन को रोकने के लिए उनकी कमज़ोरियों को निशाना बनाया जाता है। जैसे कि उसका कम्युनिकेशन जाम कर देना। अगर ग्राउंड कंट्रोल से बात ही नहीं हो पाएगी तो ड्रोन बेकार हो जाएगा। इसी तरह जीपीएस सिग्नल को जाम करना भी आसान है। इसीलिए रेज़िलिएंस यानी मजबूती का मतलब है ड्रोन ऐसी परिस्थितियों में भी ऑटोनॉमस रहकर अपना काम कर सके।
सवाल: ऑपरेशन सिंदूर के बारे में थोड़ा और बताइए। क्या आपकी कंपनी के प्रोडक्ट्स वहां इस्तेमाल हुए? ऑपरेशन सिंदूर के बाद का माहौल कैसा है, क्योंकि अभी तो इमरजेंसी प्रोक्योरमेंट चल रही है।
जवाब: जब ऑपरेशन सिंदूर शुरू हुआ, तो हमारे लिए ज़रूरी था कि सीमाओं पर सख़्त निगरानी रखी जाए। ताकि दुश्मन किसी भी बहाने से घुसपैठ न कर पाए। हमें यह भी जानना था कि किस तरह के टारगेट्स पर नज़र रखनी है। हमारी टेक्नोलॉजी शुरुआत से ही इसी मक़सद के लिए दी गई थी – सीमा पर सख़्त निगरानी, देश के अंदर सुरक्षा और ज़रूरत पड़ने पर टारगेट्स का पता लगाना। हमें जो आधिकारिक तस्वीरें और वीडियोज़ मिले, उनमें हमारी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल दिखा। सिंदूर के बाद सरकार ने ड्रोन ख़रीद में रेज़िलिएंट कैपेबिलिटीज़ पर ज़्यादा ज़ोर दिया है।
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