पॉक्सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट अधिनियम। बच्चों के शोषण को रोकने के लिए इस क़ानून को वर्ष 2012 में लाया गया था।
POCSO act misuses: पहलवान आन्दोलन की एक बड़ी खबर आज सामने आई जिसमें पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत धाराएं हटा दी गयी हैं और पुलिस द्वारा दायर की गयी चार्जशीट में यह कहा जा रहा है इस पॉक्सो के अंतर्गत किसी भी आरोप के प्रमाण नहीं मिले हैं, अब उन पर शेष धाराओं में मुकदमा चलेगा। बात केवल बृजभूषण सिंह की नहीं है, बात है उस अधिनियम के दुरूपयोग की, जिसे शोषण बचाने के लिए बनाया गया था और जो अब बदला लेने का एक माध्यम बन गया है। ऐसे में असली पीड़ितों की व्यथा दबकर रह जाती है। कई मामले अब सामने आ रहे हैं जिनमें न्यायालय द्वारा ही यह टिप्पणी की जाने लगी है कि इस अधिनियम का दुरूपयोग हो रहा है।
क्या है पॉक्सो अधिनियम
पॉक्सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट अधिनियम। बच्चों के शोषण को रोकने के लिए इस क़ानून को वर्ष 2012 में लाया गया था। इसमें बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन शोषण को अपराध बनाया गया है और यह 18 साल से कम उम्र के लड़के और लड़कियों, दोनों पर लागू होता है।
यद्यपि इसकी मंशा बहुत अच्छी है, परन्तु जैसा हर क़ानून के साथ होता है कि उसका दुरूपयोग आरम्भ हो जाता है, जैसा हमने महिलाओं से जुड़े कई कानूनों में देखा है। दो वर्ष पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी देते हुए कहा था कि इस अधिनियम का दुरूपयोग हो रहा है।
मगर सबसे महत्वपूर्ण घटना है 14 जून 2023 को ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह निर्णय जिसमें बरेली में पॉक्सो अधिनियम और बलात्कार की एफआईआर सहित पूरी कानूनी प्रक्रिया को ही निरस्त कर दिया। जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की सिंगल बेंच ने यह भी टिप्पणी की कि पीड़ित ने यह स्वीकार किया कि वह 18 वर्ष की थी और इस प्रकार पॉक्सो की कोई भी धारा नहीं लग सकती है। और इतना ही नहीं पीड़ित ने यह भी कहा कि आरोपी ने कोई अपराध नहीं किया, बल्कि उसकी मां ने ही यह झूठा मुकदमा दर्ज किया था कि आरोपी से पांच लाख रूपए लिए जा सकें।
यह मामला अकेला नहीं है। फरवरी 2023 में ही अरुणाचल प्रदेश में एक पॉक्सो अधिनियम का दुरूपयोग करने वाली महिला को न्यायालय से सजा दी गयी थी। ऐसे ही बंगलुरु में एक प्री-स्कूल केस में जो वर्ष 2015 में हुआ था, उसमें एक चार वर्ष के बच्चे ने यह आरोप लगाया कि उसका बंगलुरु में प्रीस्कूल में यौन उत्पीड़न हुआ है। मगर जांच में यह पाया गया कि बच्चे की माँ द्वारा लगाए गए आरोप झूठे थे।
ऐसे न जाने कितने मामले होते हैं जिनमें निर्दोष फंस जाते हैं। यह भी दुर्भाग्य है कि जहां कुटिल और चालाक लोग इस क़ानून का फायदा उठा कर क़ानून को बदनाम कर रहे हैं तो वहीं वास्तविक पीड़ित पुलिस स्टेशन तक जाने में हिचकते हैं।
समाज को इस विषय में सोचना होगा कि इन कानूनों के दुरुपयोगों का दुष्परिणाम क्या होगा? बृजभूषण सिंह ने भी यही कहा था कि इस क़ानून का दुरूपयोग हो रहा है। उन्होंने कहा था कि बच्चों, बुजुर्गों और संतों के खिलाफ इस क़ानून का दुरूपयोग किया जा रहा है।
यह भी उतना ही सत्य है कि बृजभूषण सिंह, सांसद हैं तो उनका मामला अधिक चर्चित रहा तो वह शायद इस दुरूपयोग का शिकार होने से बच गए। परन्तु आम आदमी, जिसके लिए पुलिस और कोर्ट कचहरी तक पहुंचना एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है, वह क्या करेगा? क्या वह एक ऐसे जाल में नहीं फंस जाएगा जहां से वह बाहर न सके? क्या वह ऐसी प्रक्रिया में नहीं फंस जाएगा जिसमें फंसकर उसका सम्पूर्ण जीवन ही प्रश्नचिन्ह बन जाएगा?
वह एक अपराधी बन तो नहीं बन जाएगा? क्या समाज का यह उत्तरदायित्व नहीं कि वह ऐसे लोगों को चिन्हित करके कम से कम प्रश्न तो करे कि आपका इस दुरूपयोग पर क्या स्टैंड है? क्योंकि यदि यह दुरुपयोग इसी प्रकार चलता रहा तो बच्चों के लिए यौन शोषण की शिकायत दर्ज कराना बहुत कठिन हो जाएगा और फिर उसका लाभ अपराधी मानसिकता वाले लोगों को ही होगा। इसलिए बहुत आवश्यक है कि राजनीति से परे जाकर न्याय के लिए बने इस कानून के दुरूपयोग को रोकना जिससे न्याय को सुनिश्चित किया जा सके।
(इस आर्टिकल को पुरुष आयोग की अध्यक्ष बरखा त्रेहन ने लिखा है।)