म्यांमार में 10 साल बाद फिर सेना का कब्जा, जानिए यहां क्यों हुआ तख्तापलट और सेना प्रमुख कितने ताकतवर हैं

भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में 10 साल बाद फिर सेना ने कब्जा कर लिया है। यहां सेना ने रविवार रात 2 बजे तख्तापलट किया। इसके साथ ही देश की सबसे बड़ी नेता स्टेट काउंसलर आंग सान सू की और राष्ट्रपति विन मिंट समेत कई नेताओं को हिरासत में ले लिया। सेना ने 1 साल के लिए इमरजेंसी का ऐलान किया है। आईए जानते हैं कि सेना ने तख्तापलट क्यों किया?

नेपिडॉ. भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में 10 साल बाद फिर सेना ने कब्जा कर लिया है। यहां सेना ने रविवार रात 2 बजे तख्तापलट किया। इसके साथ ही देश की सबसे बड़ी नेता स्टेट काउंसलर आंग सान सू की और राष्ट्रपति विन मिंट समेत कई नेताओं को हिरासत में ले लिया। सेना ने 1 साल के लिए इमरजेंसी का ऐलान किया है। आईए जानते हैं कि सेना ने तख्तापलट क्यों किया?

म्यांमार में क्यों हुआ तख्तापलट ?
म्यांमार 1948 में अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ था। यहां 1962 से सेना के हाथों में सत्ता है। लेकिन 10 साल पहले यानी 2011 में देश की बागडोर सेना की जगह चुनी गई सरकार के हाथों में आई। इसके बाद आंग सान सू की के नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने 2015 से 2020 तक सरकार चलाई। यहां नवंबर 2020 में दोबारा आम चुनाव हुए। इसमें आंग सान सू की पार्टी ने दोनों सदनों में 396 सीटें जीती थीं। उनकी पार्टी ने लोअर हाउस की 330 में से 258 और अपर हाउस की 168 में से 138 सीटें जीतीं।

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आंग सान सू की

इस चुनाव में म्यांमार में सेना के समर्थन वाली पार्टी यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट ने सिर्फ 33 सीटें जीतीं। चुनाव नतीजों के बाद सेना ने इस पर सवाल खड़े कर दिए। आंग सान सू की पार्टी पर चुनाव में धांधली का आरोप लगा। इसे लेकर सेना ने सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और चुनाव आयोग की शिकायत भी की है। इसके बाद से सेना ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया और आखिर में सत्ता अपने कब्जे में ले ली। 

म्यांमार में कितनी ताकतवर है सेना?
म्यांमार में आजादी के बाद से राजनीति में सेना का दखल रहा है। यहां 1962 में तख्तापलट के बाद से सेना करीब 50 साल तक शासन किया। इसके बाद लोकतंत्र की मांग तेज हुई, तो सेना नया संविधान लाई। इसमें भी सेना की स्वायत्तता और वर्चस्व को बनाए रखा गया। यहां सरकार किसी कानून को ला सकती है, लेकिन उसे लागू कराने की शक्ति सेना प्रमुख के पास ही होती है। यहां तक की संसद में भी सेना को 25% सीटों का अधिकार है। 

अभी क्या स्थिति है?
म्यांमार में सेना ने अपने मूवमेंट बढ़ा दिए हैं। यहां तक की प्रमुख शहरों में सेना के जवान सड़कों पर नजर आ रहे है। राजधानी और बड़े शहरों में इंटरनेट और फोन सेवा बंद कर दी गई है। सरकारी चैनल बंद कर दी गई है। देश में एक साल के लिए इमरजेंसी का ऐलान किया गया है। 


 म्यांमार में प्रमुख शहरों में सेना के जवान तैनात हैं।

कौन हैं सेना प्रमुख मिन आंग लाइंग ?

इसी के साथ सभी की निगाहें तख्तापलट करने वाले सेना प्रमुख सीनियर जनरल मिन आंग लाइंग पर आकर टिक गईं। यहां लाइंग के हाथों में ही सत्ता की कमान है। लाइंग विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका की जिम्मेदारी संभालेंगे। लाइंग 64 साल के हैं, वे इसी साल जुलाई में रिटायर होने वाले थे। लाइंग ने 1972-74 तक यंगून यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई की है। 

सेना प्रमुख सीनियर जनरल मिन आंग लाइंग

लाइंग को बहुत लो प्रोफाइल और कम बोलने वाला माना जाता है। लाइंग को 2010 में जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ बनाया गया। इसके एक साल बाद वे 2011 में सेना प्रमुख बन गए। उस वक्त म्यांमार में लोकतंत्र का उदय हुआ था। ऐसे में माना जाता था कि लाइंग म्यांमार की राजनीति से सेना का दखल खत्म कर देंगे। 2017 में म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों को भगाने में भी लाइंग की अहम भूमिका मानी जाती है। इसे लेकर उनका ट्विटर अकाउंट भी बैन कर दिया गया था। इसके अलावा अमेरिका ब्रिटेन समेत तमाम देशों ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया था। 

भारत पर तख्तापलट का क्या असर पड़ेगा?
म्यांमार में हुए तख्तापलट पर भारत की पूरी नजर है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा, हमने म्यांमार में हुए घटनाक्रम का संज्ञान ले लिया है। भारत म्यांमार में हमेशा से लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हस्तांतरण के पक्ष में रहा है। हमारा मानना है कि कानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कायम रहनी चाहिए। 

वैसे तो आंग सान सू की को भारत का करीबी माना जाता है। लेकिन जनरल मिन आंग लाइंग के साथ भी भारत के रिश्ते सामान्य हैं। इसकी वजह है कि भारत और म्यांमार के बीच रिश्ते उस समय भी अच्छे थे, जब वहां लोकतंत्र नहीं था। इसके साथ ही भारत की सेना म्यांमार की सेना के साथ मिलकर उग्रवादियों के खिलाफ ऑपरेशन्स को अंजाम भी देती रही है। इसके अलावा म्यांमार की सेना जानती है कि उसे भारत की जरूरत है। हालांकि, म्यांमार की सेना का रूख चीन की तरफ माना जाता है, यह भारत के लिए चिंता का विषय हो सकता है।

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