इतिहास में कभी सावरकर को वह महत्व नहीं मिला जिसके वे हकदार थे

विनायक दामोदर सावरकर एक ऐसे क्रांतिकारी रहे हैं, जिन्हें ठीक से नहीं समझा गया। गलत प्रचार की वजह से इतिहास के पन्नों से उनका नाम बाहर ही रहा। 

Abhinav Khare | Published : Mar 1, 2020 10:03 AM IST

जब मैं 21 साल का था तब वीर सावरकर से मेरा पहला परिचय हुआ। तब मैं पेरिस में एक मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में अपनी प्रोफेशनल लाइफ की शुरुआत कर रहा था। उस दौरान मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपनी जड़ों से कटता चला जा रहा हूं। मैं इस कोशिश में था कि कैसे अपनी जड़ों से जुड़ सकूं, तभी वीर सावरकर के बारे में मुझे पता चला। जहां इतिहास की हर किताब में नेहरू और गांधी के बारे में विस्तार से लिखा गया है, वहीं सावरकर को इतिहासकारों ने उपेक्षित किया है और जहां उनकी चर्चा हुई है तो वह भी नकारात्मक रूप में। सावरकर को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कभी उस तरह से समझने की कोशिश नहीं की गई, जैसे दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को समझा गया। 

हम यह नहीं भूल सकते कि सावरकर उन क्रांतिकारियों में थे, जिन्होंने 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों में मित्र मेला नाम के गुप्त क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की थी,  जिसका नाम बाद में अभिनव भारत सोसाइटी रखा गया। उन्होंने ब्रिटिश शासन से देश की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी। वे भारत की आजादी के लिए लंदन में चलाए जा रहे क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नेता थे। वहां उन्होंने लोगों को भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से एकजुट किया था। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अंडमान के सेल्युलर जेल में 11 साल बिताए और बड़ी यातनाएं सहीं। वहां से उन्हें सशर्त मुक्ति मिली और बाकी का जीवन उन्होंने रत्नागिरी में अकेले बिताया। किसी की सीधे आलोचना कर देना बहुत आसान काम है, लेकिन किसी निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले उस पर गहराई से विचार करना चाहिए।

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सावरकर बहुत ही पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। उन्हें यूरोप के लगभग सभी दार्शनिकों और उनके विचारों के बारे में गहरी जानकारी थी। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य का अंग्रेजी से मराठी में काफी अनुवाद किया था, ताकि भारत में उनके साथी उससे प्रेरणा हासिल कर सकें। हम यह भूल चुके हैं कि जेल में रहने के दौरान उन्होंने अपने परिवार के कई सदस्यों को खो दिया था। उन्हें अपनी पत्नी और बच्चों से दूर रहना पड़ा। उनके गिरफ्तार हो जाने के बाद समाज ने भी उन्हें छोड़ दिया था। 

बहुत से लोग इस बात को जानते हैं कि सावरकर ने ही पहली बार सिपाही विद्रोह को पहला भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहा था। उन्होंने भारत की आजादी के संघर्ष में बुद्धिजीवियों को शामिल किया। वे इटली, फ्रांस, आयरलैंड और दूसरे यूरोपीय देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों से प्रभावित थे। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य का लंदन में अनुवाद कर के उसे भारत भेजा था, ताकि उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके। भगत सिंह ने भी उनके कामों की प्रशंसा की थी और उनसे प्रेरणा हासिल की थी। उन्होंने चित्रगुप्त द्वारा लिखी गई सावरकर की जीवनी को उन सभी लोगों के लिए पढ़ना अनिवार्य कर दिया था, जो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) से जुड़े थे। यह किताब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करने वाले लोगों के लिए भी काफी मायने रखती थी। 

सावरकर अपने समय से आगे थे। उन्होंने कई पुरातनपंथी हिंदू रीति-रिवाजों को चुनौती दी थी। वे जाति प्रथा को पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने एक सुधारवादी आंदोलन भी चलाया था। उन्होंने रत्नागिरी में सभी जातियों के लोगों के लिए एक मंदिर की स्थापना की थी, जिसका नाम पतित पावन मंदिर था। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भी उनके इस काम की सराहना की थी। उन्होंने हिंदुत्व को इस तरह से परिभाषित किया था कि वह सभी के लिए स्वीकार्य हो सके। 

सावरकर का अक्सर इस बात के लिए मजाक उड़ाया जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों से जेल से छोड़े जाने के लिए गुजारिश की थी और इसके बदले में स्वत्रंतता आंदोलन से दूर रहने की बात कही थी। लेकिन यह पूरी तरह से हास्यास्पद है। वे एक राजनीतिक कैदी थे और उनके लिए सरकार को कोई याचिका देना स्वाभाविक था। वे एक जाने-माने वकील थे और उन्हें अच्छी तरह पता था कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या हो सकता है। भगत सिंह को अदालत में सिर्फ एक सुनवाई में ही मौत की सजा दे दी गई थी, लेकिन सावरकर को 50 साल के कठिन कारावास की सजा सुनाई गई थी। हम यह भूल चुके हैं कि 1920 में महात्मा गांधी ने भी उन्हें जेल से छोड़े जाने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक प्रार्थना पत्र दिया था, ताकि वे संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया में भाग ले सकें। वहीं, अगर हम उनकी याचिकाओं को देखें तो उन्होंने जो किया, उसके लिए कोई माफी नहीं मांगी है। इसकी जगह उन्होंने कहा है कि वे हिंसक विरोध को छोड़ कर अहिंसात्मक आंदोलन के मार्ग को अपनाएंगे। 

अभी सावरकर के खिलाफ जो बातें की जा रही हैं, वे सत्ताधारी पार्टी को अपमानित करने की एक राजनीतिक चाल है। जब 1966 में सावरकर की मृत्यु हुई थी, तब इंदिरा गांधी ने भी उन्हें एक बहादुर देशभक्त बताया था। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने उनके नाम से एक डाक टिकट भी जारी किया था। यह सच नहीं है कि ऐसा उन्होंने जनसंघ के राजनीतिक दबाव के चलते किया था। हमें सावरकर के योगदान को सामने लाना चाहिए और उनकी परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए। इतिहास में सावरकर की उपेक्षा की गई है और हमें इस गलती को दूर करना है। 

कौन हैं अभिनव खरे
अभिनव खरे एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीइओ हैं और 'डीप डाइव विद एके' नाम के डेली शो के होस्ट भी हैं। उनके पास किताबों और गैजेट्स का बेहतरीन कलेक्शन है। उन्होंने दुनिया के करीब 100 से भी ज्यादा शहरों की यात्रा की है। वे एक टेक आंत्रप्रेन्योर हैं और पॉलिसी, टेक्नोलॉजी. इकोनॉमी और प्राचीन भारतीय दर्शन में गहरी रुचि रखते हैं। उन्होंने ज्यूरिख से इंजीनियरिंग में एमएस की डिग्री हासिल की है और लंदन बिजनेस स्कूल से फाइनेंस में एमबीए हैं।            
 

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