क्या 'एक राष्ट्र एक चुनाव' संभव है? जानें देश के लिए क्यों जरूरी है वन नेशन-वन इलेक्शन

एक राष्ट्र एक चुनाव प्रणाली, जो 1971 तक स्थापित थी ने आखिर रास्ता कैसे बदल लिया? एस गुरुमूर्ति न केवल इस बदलाव के पीछे के तर्क को समझने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि यह भी समझने का प्रयास कर रहे हैं कि PM मोदी इसे कैसे पुनर्स्थापित करने में जुटे हैं।

One Nation One Election: 1952 से 1967 के बीच हमारे देश का चुनावी परिदृश्य संसदीय और विधानसभा चुनावों के समन्वय का गवाह बना, जिसने एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रतिमान के युग की शुरुआत की। इस युग के दौरान, आजादी के बाद चार आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने मजबूती के साथ इस एकीकृत चुनावी ढांचे का पालन किया। हालांकि, 4 साल के छोटे कार्यकाल के भीतर DMK द्वारा 1967 की विधानसभा को भंग करने के साथ ही हालात बदल गए। फिर भी 1971 के संसदीय चुनाव तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के साथ एक राष्ट्र एक चुनाव के बैनर तले ही आयोजित किए गए थे। ये वास्तव में भ्रमित करने वाली बात है कि वही पार्टी जो कभी इस प्रणाली की समर्थक थी, अब इसके खिलाफ विरोध की आवाज उठा रही है। ये अविश्वास तब और बढ़ जाता है, जब इस तरह के विरोध को भाजपा द्वारा राज्य के अधिकारों को हड़पने की नापाक साजिश के रूप में दिखाने की कोशिश की जाती है। एक राष्ट्र एक चुनाव प्रणाली, जो एक समय 1971 तक स्थापित थी, ने आखिर अपना रास्ता कैसे बदल लिया? इस बदलाव के पीछे के तर्क को समझने के साथ ही ये भी जानने की कोशिश करेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी इस प्रणाली को कैसे पुनर्जीवित और स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।

वन इलेक्शन मेथड क्यों जरूरी ?

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यूनिफाइड इलेक्टोरल सिस्टम की अनिवार्यता इस तथ्य से रेखांकित होती है कि मतदाताओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, खासतौर पर 1970 के बाद पैदा हुए लोग, 1967 में से पहले ऐसी प्रणाली के प्रति हमारे देश के ऐतिहासिक पालन से अनजान हो सकते हैं। खासकर, जब 1956 में भाषाई राज्यों का निर्धारण किया गया, तो 7 राज्यों में विधान सभाओं का विघटन हुआ, जिससे 1957 में एक साथ राज्य और संसदीय चुनावों का मार्ग प्रशस्त हुआ। सिंगुलर इलेक्टोरल मैकेनिज्म के प्रति इस दृढ़ प्रतिबद्धता में इतना महत्वपूर्ण बदलाव कैसे आया? इसे समझने के लिए, वर्तमान खंडित दृष्टिकोण के नतीजों का विश्लेषण करना जरूरी है, जिसमें संसदीय और राज्य चुनाव अलग-अलग आयोजित किए जाते हैं। केवल इन प्रतिकूल प्रभावों को चित्रित करके ही हम ये साफ कर सकते हैं कि एकल-चुनाव प्रणाली की वापसी के लिए प्रधानमंत्री मोदी की एडवोकेसी कोई नया प्रस्ताव नहीं है, बल्कि पिछली गलतियों को सुधारने और हमारे चुनावी ढांचे में सामंजस्य स्थापित करने की एक मजबूत कोशिश है।

एक स्वाभाविक रूप से अस्थिर राजनीतिक मॉडल में एकल चुनाव पद्धति के विकास का पता भारत के राजनीतिक इतिहास के उतार-चढ़ाव वाले अध्यायों के जरिये लगाया जा सकता है। कांग्रेस, जो एक समय भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी धुरी थी, धीरे-धीरे आंतरिक कलह, गुटबाजी और लीपापोती की बदनाम 'आया राम गया राम' कल्चर का शिकार हो गई। आंतरिक एकजुटता के इस क्षरण के कारण क्षेत्रीय दलों द्वारा उत्साहित गठबंधन सरकारों का उदय हुआ, जिससे प्रशासनिक कमजोरी के युग की शुरुआत हुई। परिणामस्वरूप यूनिफाइड इलेक्शन का ताना-बाना सुलझना शुरू हो गया, कई राज्यों में अलग-अलग चुनाव आदर्श बन गए।

1967 गवाह बना उस खास महत्वूपर्ण घटना का, जब इंदिरा गांधी ने 1972 में राज्य विधानसभा चुनावों से अलग संसदीय चुनाव कराए। संसद और राज्य विधानसभाओं के बीच इस विवाद ने एकीकृत चुनावी प्रतिमान के विघटन को बढ़ा दिया। 1989 तक केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस के घटते प्रभुत्व के साथ, गठबंधन सरकारों के प्रभुत्व ने अनिश्चित शासन के युग की शुरुआत की। अस्थिरता से ग्रस्त ये गठबंधन बार-बार टूटते रहे, जिससे संसदीय चुनावों में अभूतपूर्व उछाल आया। 'एक राष्ट्र एक चुनाव प्रणाली' को बनाए रखने के लिए एक सुसंगत योजना के अभाव में, इसके अंत पर मुहर लगा दी गई, जिससे एक स्वाभाविक रूप से अस्थिर चुनावी ढांचे के मजबूत होने का रास्ता साफ हुआ, जो आज तक कायम है।

47 में से 15 पार्टियों ने जताई असहमति

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के कुशल नेतृत्व में, एक विशेषज्ञ संघ ने यूनिफाइड इलेक्टोरल सिस्टम को अपनाने के संबंध में राजनीतिक गुटों के बीच आम सहमति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक मौलिक जांच शुरू की। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम नबी आजाद समेत विशेषज्ञों के एक समूह के साथ उपस्थित सभा ने इस महत्वपूर्ण मामले की जटिलताओं पर बड़ी ही सावधानी से विचार किया। 47 राजनीतिक संस्थाओं में से 32 दलों ने यूनिफाइड इलेक्टोरल सिस्टम के प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया, जबकि 15 ने इस पर असहमति जताई। असहमत लोगों में कांग्रेस, वाम मोर्चा, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां शामिल थीं। विशेषज्ञ समूह ने 4 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई, एसए बोबडे और यूयू ललित की सलाह मांगी, जिनमें से सभी ने एकीकृत चुनावी ढांचे की अनिवार्यता की पुरजोर वकालत की।

191 दिनों की चर्चा के बाद तैयार हुई 18626 पेज की रिपोर्ट

191 दिनों की बातचीत के बाद, समूह ने 21,558 लोगों से फीडबैक लिया और उनके निष्कर्षों से 18,626 पेज की एक व्यापक रिपोर्ट तैयार की। इस प्रकार समूह ने साफतौर पर एकल चुनावी प्रणाली (Single Electoral System) की अपरिहार्यता का समर्थन किया, जो हमारे देश के राजनीतिक विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।

बार-बार होनेवाले चुनाव से बाधित होता है आर्थिक विकास

विशेषज्ञ समूह ने एकल चुनावी प्रणाली का समर्थन करने की वजह भी साफतौर पर बताई। समूह की ओर से कहा गया कि विभिन्न राज्यों में बार-बार होने वाले चुनाव शासन, प्रशासन और आर्थिक प्रगति को बाधित करते हैं। पिछले कुछ सालों में चुनावों की संख्या आसमान छू गई है, जिससे और अराजकता बढ़ी है। उदाहरण के लिए 1950 से 1960 के बीच केवल 25 केंद्रीय-राज्य चुनाव हुए, लेकिन 1961 से 1970 के बीच यह संख्या बढ़कर 71 हो गई। हाल के कुछ सालों में और भी ज्यादा चुनावों के साथ 2001 से 2010 के बीच 62 चुनाव हुए और 2011 से 2020 के बीच 63 चुनाव हुए। सिर्फ 2021 से 2023 के बीच ही 23 चुनाव हो चुके हैं। देश में बार-बार होनेवाले चुनाव से न केवल राजनीति पर असर पड़ता है बल्कि ये अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित करता है।

GDP को बढ़ाने और महंगाई घटाने में मिलेगी मदद

कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि एकल चुनावी प्रणाली पर स्विच करने से सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि 1.5% बढ़ सकती है और मुद्रास्फीति (महंगाई दर) 1.1% कम हो सकती है। इससे सरकारी निवेश बढ़ने के साथ ही बेफिजूल खर्च और घाटे को कम करने में भी मदद मिलेगी। साथ ही, ऐसे सबूत भी हैं, जो बताते हैं कि एकीकृत चुनावों से अपराध दर में भी गिरावट आ सकती है।

कैसे इम्प्लीमेंट करेंगे?

समूह ने एक साथ चुनावी प्रणाली स्थापित करने की दिशा में मूलभूत कदम के रूप में संवैधानिक संशोधन की जरूरत पर जोर दिया है। इस महत्वपूर्ण सिफारिश में विधानसभा और संसदीय चुनावों को समकालिक तरीके से आयोजित करना शामिल है, जिससे राज्य की मंजूरी की जरूरत खत्म हो जाएगी। इसके अलावा, आधे से ज्यादा राज्यों से समर्थन प्राप्त करने के आधार पर एकल चुनाव के 100 दिनों के भीतर स्थानीय चुनावों के शेड्यूल को अनिवार्य करने के लिए संवैधानिक संशोधन प्रस्तावित हैं। संविधान के सफल संशोधन पर राष्ट्रपति औपचारिक रूप से एकल चुनाव प्रणाली (Single Electoral System) का उद्घाटन करने के लिए 2024 के संसदीय चुनावों के बाद नियत तारीख की घोषणा करेंगे। इसके बाद होने वाले राज्य चुनावों में निर्वाचित विधानसभाओं का कार्यकाल संसद के कार्यकाल के अनुरूप होगा। उदाहरण के लिए 2024 में चुनी गई संसद का कार्यकाल 2029 में समाप्त होगा। संक्षेप में, 2024 के चुनावों के बाद संवैधानिक संशोधनों की पुष्टि की जाएगी। इसके बाद राष्ट्रपति एक खास डेट निर्धारित करेंगे, जो भारत के चुनावी परिदृश्य में एक परिवर्तनकारी युग की शुरुआत करेगी।

नोट: यह लेख मूल रूप से तुगलक तमिल साप्ताहिक पत्रिका में छपा था। इसका अंग्रेजी में अनुवाद तुगलक डिजिटल द्वारा www.gurumurthy.net के लिए किया गया था। इसे एशियानेट न्यूज नेटवर्क में दोबारा प्रकाशित किया गया है।

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