एस गुरुमूर्ति कॉलमः खनिज संपदा संपन्न उत्तर-पूर्वी राज्यों की कीमत पर फले-फूले दक्षिणी-पश्चिमी राज्य, बेकार है धन आवंटन पर बहस

एस गुरुमूर्ति का कहना है कि माल ढुलाई समानीकरण योजना जैसी नीतियों के चलते उत्तर-पूर्वी राज्यों की कीमत पर दक्षिणी-पश्चिमी राज्य फले-फूले। वहीं, उत्तरी और पूर्वी राज्य शोषण और विकास संबंधी असफलताओं की विरासत से जूझ रहे हैं।

केंद्र सरकार पर आरोप लगाया जा रहा है कि केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे दक्षिण के राज्यों से जितना टैक्स मिलता है उससे कम पैसे इन राज्यों को आवंटित किए जाते हैं। उत्तरी राज्यों से कम टैक्स जमा होता है फिर भी उन्हें अधिक पैसे दिए जाते हैं। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी 54वीं तुगलक वर्षगांठ पर इसे एक असमानता के रूप में संबोधित किया। उन्होंने इसे अन्यायपूर्ण उत्तर-दक्षिण राजनीतिक दरार करार दिया।

हालिया आंकड़ों के आधार पर थरूर के दावों का खंडन किया जा सकता है। इससे पहले उस ऐतिहासिक संदर्भ पर दोबारा गौर करना जरूरी है जिसमें दक्षिणी और पश्चिमी राज्य पांच दशकों में अपने उत्तरी और पूर्वी समकक्षों की कीमत पर समृद्ध हुए। यह कहनी शशि थरूर जैसे लोगों को चौंका देगी।

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नरेंद्र मोदी ने कहा था खतरनाक है ऐसी विचारधारा

उत्तर-दक्षिण के विभाजन के मुद्दे पर पीएम नरेंद्र मोदी ने संसद में कहा था, "यह धारणा कि हमारे राज्य के भीतर जुटाए गए टैक्स पूरी तरह से हमारे हैं। हमारी सीमाओं के भीतर नदी का पानी हमारा है। हमारी जमीन से निकाले गए खनिज हमारे हैं। हमारी सीमाओं के भीतर खेती की जाने वाली कृषि उपज हमारी है। ऐसी विचारधारा खतरनाक है। यह राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है।"

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल को पिछड़े राज्य कहा जाता है। आजादी मिलने के बाद इन राज्यों ने अपनी प्रचुर खनिज संपदा का इस्तेमाल केवल अपनी उन्नति के लिए नहीं किया था। केंद्र सरकार ने इन क्षेत्रों को लाभ पहुंचाने के साथ ही दक्षिण-पश्चिमी राज्यों के विकास को बढ़ावा देने के लिए भी नीतियां बनाईं थी। यह नीति 1957 से 1992 तक 35 साल तक जारी रही। उत्तर-पूर्वी राज्यों में विकास की गति धीमी हुई। वहीं, दक्षिण-पश्चिमी राज्य अधिक फले-फूले। वे समृद्धि के गढ़ के रूप में उभरे।

दक्षिण-पश्चिमी राज्यों की प्रगति को बढ़ावा देते हुए 'फ्रेट इक्वलाइजेशन स्कीम' (एफईएस) लागू की गई। इससे उत्तर-पूर्वी राज्यों की विकास संभावनाओं पर खराब असर हुआ। खनिज समृद्ध होते हुए भी उत्तर-पूर्वी राज्य विकास की दौर में पीछे रह गए। यदि एफईएस नीति लागू नहीं की गई होती, तो दूसरों के विकास के लिए खनिज समृद्ध राज्यों के शोषण के बारे में आज का शोर खोखला होगा। एफईएस नीति ने दक्षिण-पश्चिमी राज्यों के विकास को सुविधाजनक बनाया। वहीं, उत्तरी राज्यों की विकास की उम्मीदों को झटका लगा।

एफईएस से उत्तर-पूर्व में हुआ विनाश, दक्षिण-पश्चिम में आई समृद्धि

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और झारखंड के पास कोयला, लौह अयस्क, डोलोमाइट और चूना पत्थर के विशाल भंडार हैं। ये क्षेत्र रणनीतिक रूप से खनिज भंडार के पास स्थित स्टील मिलों, थर्मल पावर प्लांट और सीमेंट कारखानों के लिए केंद्र के रूप में काम करते हैं। इससे स्टील, बिजली और सीमेंट के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण कच्चे माल की आसान पहुंच सुनिश्चित होती है।

1907 में इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी (IISCO) के बैनर तले बिहार के जमशेदपुर में टाटा समूह के स्टील प्लांट की स्थापना इन खनिज समृद्ध क्षेत्रों के रणनीतिक महत्व को बताती है। इसके अलावा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) ने उत्तर प्रदेश के बांदा, छत्तीसगढ़ के भिलाई, ओडिशा के राउरकेला और पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में स्टील मिलें और थर्मल पावर प्लांट लगाए।

1950 से 1960 के दशक के दौरान प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न राज्यों ने इस्पात, बिजली और सीमेंट उद्योगों में उन्नति की। इससे औद्योगीकरण और आर्थिक समृद्धि की लहर दौड़ गई थी। 1960 के दशक के अंत के वर्षों में स्थिति बदली। संपन्न राज्यों के विकास में ठहराव हुआ। स्टील, बिजली और सीमेंट उद्योग का बड़े पैमाने पर दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में पलायन हुआ।

FES को पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने शुरू किया था। माल ढुलाई में रियायत देने वाली इस नीति के चलते बड़े पैमाने पर उथल-पुथल हुआ था। इसे संसाधन संपन्न राज्यों से दूर के राज्यों तक कच्चे माल की ढुलाई की लागत कम करने के लिए डिजाइन किया गया था। इसने उद्योगों को कच्चे माल की उपलब्धता की परवाह किए बिना दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्रों में जाने के लिए बढ़ावा मिला। इसका नतीजा हुआ कि संसाधन-संपन्न क्षेत्रों में उत्पादन और विकास की गति अचानक रुक गई। इससे ठहराव और आर्थिक अव्यवस्था का युग शुरू हो गया।

ऐसे हुआ दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों का उत्थान

FES का उद्देश्य खनिज संपदा के समान वितरण को सुविधाजनक बनाना था। इसका मिशन राष्ट्र के सामूहिक लाभ के लिए राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन था ताकि संसाधनों से वंचित क्षेत्रों में भी विकास को बढ़ावा मिल सके। हालांकि, वास्तविकता बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती है।

FES ने ऐसे राज्यों पर कहर ढ़ाया जो प्राकृतिक संसाधनों से भरे हुए थे। इससे खनिजों के कम कीमत में दक्षिणी, पश्चिमी और पंजाब जैसे दूर के उत्तरी राज्यों तक खनिज संसाधनों के बिना किसी बाधा के परिवहन की सुविधा मिली। संसाधन संपन्न राज्यों से उद्योगों का पलायन शुरू हो गया। उद्योग मजबूत बाजारों और शैक्षणिक संस्थानों की विशेषता वाले पश्चिम-दक्षिण राज्यों में पलायन कर गए। इसके चलते दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में उद्योग, अर्थव्यवस्था, कर राजस्व और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई। दूसरी ओर खनिज समृद्ध राज्य उपेक्षा की छाया में पड़े रहे। 1957 से 1992 तक लागू की गई FES ने एक क्षेत्र की कीमत पर दूसरे क्षेत्र में समृद्धि को बढ़ावा दिया। उदारीकरण के बाद स्थिति बदली। इस्पात और बिजली जैसे उद्योगों की खनिज-समृद्ध राज्यों में वापसी हुई है।

खतरनाक है उत्तर-दक्षिण का राजनीतिक विभाजन

केंद्र-राज्य आवंटन मुद्दे को उत्तर-दक्षिण मामले के रूप में तैयार करने का शशि थरूर का दावा गलत है। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। 16.63 लाख करोड़ रुपए का कुल डायरेक्ट टैक्स जुटाया गया है। महाराष्ट्र में 6.05 लाख करोड़ रुपए, दिल्ली में 2.22 लाख करोड़ रुपए, कर्नाटक में 2.08 लाख करोड़ रुपए और तमिलनाडु में 1.07 लाख करोड़ रुपए डायरेक्ट टैक्स मिले।

डायरेक्ट टैक्स में ये चार राज्य कुल मिलाकर 11.42 लाख करोड़ रुपए (69%) का योगदान करते हैं। डायरेक्ट टैक्स के लिए आमदनी पैदा करने वाली संस्थाएं विभिन्न राज्यों में काम करती हैं। यह धारणा कि टैक्स से मिला पैसा पूरी तरह से उस राज्य का है जहां उसे जुटाया गया है बेतुका है। उदाहरण के लिए दिल्ली में एकत्र किए गए 2.22 लाख करोड़ रुपए टैक्स उस मुनाफा का हिस्सा है जिसे केवल दिल्ली की सीमाओं के भीतर ही नहीं, बल्कि देश भर में कमाया गया है।

विभिन्न राज्यों से आने वाले केंद्र सरकार के कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या दिल्ली में कर चुकाती है। क्या यह कहना सही है कि वे टैक्स दिल्ली के हैं? इसी तरह, चेन्नई, मुंबई और बेंगलुरु अपने संबंधित राज्यों में कर राजस्व में तीन-चौथाई योगदान करते हैं। कर भुगतान उस राज्य की सीमाओं को पार कर जाता है जहां मुनाफा अर्जित होता है। संवैधानिक जनादेश से व्यवसायों को देशभर में संचालन करने की अनुमति मिलती है। यह उन राज्यों के बीच कर राजस्व के उचित वितरण को अनिवार्य करता है जहां से मुनाफा उत्पन्न होता है। इसलिए जिस राज्य ने टैक्स जमा किया उसका उसपर दावा करना गलत है। जाहे वह टैक्स प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। इस गलत आधार पर उत्तर-दक्षिण की राजनीति करने से गलतफहमी पैदा होती है। 

शशि थरूर का तर्क है कि अधिक आबादी वाले उत्तरी राज्यों को अधिक पैसे दिए जाते हैं। तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष अन्नामलाई ने शशि थरूर को जवाब दिया है। उन्होंने केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व वितरण तय करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार हर पांच साल में गठित होने वाले वित्त आयोग की भूमिका पर जोर दिया है।

2021 में स्थापित 15वां वित्त आयोग कई कारकों के आधार पर राज्यों को धन आवंटित करता है: (1) राज्यों के भीतर प्रति व्यक्ति आय असमानता - 45 अंक, (2) भूमि क्षेत्र - 15 अंक, (3) जनसंख्या - 15 अंक, (4) परिवार नियोजन- 12.5 अंक, (5) वनरोपण, पर्यावरण - 10 अंक, (6) वित्तीय क्षेत्र विनियमन - 2.5 अंक।

अन्नामलाई ने जनसंख्या के महत्व पर प्रकाश डाला। इसे 15 अंक आवंटित किए गए हैं। उन्होंने इसकी तुलना इंदिरा गांधी के शासन के दौरान 1970 के दशक से की। उस वक्त धन आवंटन में आबादी को 50% प्राथमिकता दी गई थी। यह घटकर 2021 में 15% हो गई है। कांग्रेस शासन के दौरान उत्तरी राज्यों को उनकी बड़ी आबादी के आधार पर अधिक पैसे दिए गए। जनसंख्या के लिए 15 अंक हैं जिससे उत्तरी राज्यों को लाभ हो सकता है। वहीं, परिवार नियोजन के लिए 12.5 अंक है। यह दक्षिणी राज्यों को लाभ पहुंचाता है। इस तरह पैसे के आवंटन को प्रभावी ढंग से संतुलित किया गया है।

अन्नामलाई ने बताया कि तमिलनाडु के छह पश्चिमी जिले कुल राजस्व का 54% योगदान देते हैं। इसके बावजूद तमिलनाडु सरकार इन जिलों से प्राप्त पैसे को राज्य के वंचित क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा देने के लिए खर्च करती है। अगर ऐसा नहीं किया जाए तो तमिलनाडु का समग्र विकास कैसे कायम रखा जा सकता है?

जो राज्य विकास की रेस में पीछे रह गए हैं उन्हें संसाधनों के अधिक आवंटन की आवश्यकता होती है। जो लोग धन के आवंटन पर बहस करते हैं वे अधूरी जानकारी के साथ ऐसा कर रहे हैं। वे उत्तर-दक्षिण को बांटने में लगे हैं। उन्हें इस खतरनाक राजनीतिक प्रवचन को जारी रखने से बचना चाहिए।

नोट: यह लेख मूल रूप से तुगलक तमिल साप्ताहिक पत्रिका में छपा था। इसे एशियानेट न्यूज नेटवर्क में दोबारा प्रकाशित किया गया है। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।

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