बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के विचारों के अनुरूप देश का विकास सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी

16 नवम्बर 1949 को देश को संविधान सौपते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा था, ‘‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’

Asianet News Hindi | Published : Dec 5, 2019 6:05 PM IST

रामदास आठवले

आज छः दिसंबर है। बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस। इस वर्ष यह तारीख इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि हम देश की गति को समता उन्मुखी जिस संविधान के कारण देख रहे हैं उसका 70 साल इसी वर्ष पूरा हुआ है और उसके कुछ दिनों के भीतर ही संविधान-निर्माता डा. अम्बेडकर को कृतज्ञ राष्ट्र याद कर रहा है। जाति, वर्ग और जेंडर व अन्य कारणों से हाशिये पर जीने वाला समूह, वर्ग आज एक सकारात्मक दिशा में प्रगति कर रहा है और अपने हकों के लिए लड़ रहा है उसके पीछे संविधान का ही संबल है। 16 नवम्बर 1949 को देश को संविधान सौपते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा था, ‘‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’ हम इस रूप में बेहतर स्थिति में हैं कि संविधान निर्माता खुद डा. अम्बेडकर थे और एक बेहतरीन संविधान वे हमें विरासत में दे गये हैं। 

एक राज्य के रूप में भी हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश में विकास की दिशा संविधान के मूल्यों के अनुरूप हो। यह उतना ही जरूरी है जितना देश का संरचनात्मक विकास, सड़कों और अन्य सुविधाओं का विकास। संविधान के मूल्यों को सुनिश्चित करने के लिए वहां कई व्यवस्थायें हैं। इसके निर्माण में देश के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ दिमाग लगे थे, कई समितियों उपसमितियों में अनेक दिनों तक बहसों के बाद नागरिकों की बेहतरी के अनुच्छेद तय हुए। उन सारी समितियों-उपसमितियों में डा. अम्बेडकर देश के हाशिए के समूहों के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय थे और उनके लिए समुचित व्यवस्थायें सुनिश्चित करवा सके। इसके बावजूद उन्होंने संविधान के संदर्भ में इस्तेमाल वाली जो बात कही वह ज्यादा यथार्थपरक है।  

डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने का कार्य हम सबको मिलकर करना है। उनका सांस्कृतिक और आर्थिक चिंतन हमारे लिए रोडमैप है। उनके द्वारा लिखित संविधान की मूल भावनाओं के जरिये हम देश को समृद्ध कर सकते हैं। देश की समृद्धि तभी संभव है जब हम देश में एक समतापूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 15 इस मायने में हमारा पथ निर्देशक है। अनुच्छेद 15 की धारा 1 और 2 जहाँ संविधान और राज्य के सामने जाति, धर्म, जेंडर और रेस के आधार पर भेदभाव के खिलाफ संकल्प सुनिश्चित करती है वहीं 15वें अनुच्छेद की धारा 3 और चार सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक रूप से पीछे छूट गये लोगों के लिए विशेष प्रावधान सुनिश्चित करती है। अनुच्छेद 16 भी इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक व्यवस्था है। संविधान की मूल भावना के अनुरूप समतापूर्ण समाज का निर्माण ही डा. अम्बेडकर के प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

इस देश में समता की विरोधी व्यवस्था रही है, वर्ण व्यवस्था। वर्ण व्यवस्था न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से किसी मनुष्य या मनुष्य समूह को किसी दूसरे मनुष्य या मनुष्य समूह से कमतर आंकती है बल्कि यह आर्थिक संसाधनों से भी किसी मनुष्य या मनुष्य-समूह को वंचित करती है और किसी मनुष्य या मनुष्य-समूह को अधिकार संपन्न बनाती है। इस मामले में डा. अम्बेडकर पूरी तरह स्पष्ट थे कि वे वर्ण व्यवस्था को किसी रूप में सही नहीं मानते थे और उसे ही जाति व्यवस्था का एक चरण भी मानते थे, इसीलिए वे वर्ण व्यवस्था सहित जाति व्यवस्था के सम्पूर्ण उन्मूलन के पक्षधर थे। 1936 में लाहौर में भाषण के लिए बाबा साहेब ने ‘ जाति व्यवस्था का उच्छेद’ (ऐनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट) नामक आलेख लिखा था। हालांकि वे वहां भाषण नहीं दे पाये थे। उन्होंने जाति को लेकर एक वैज्ञानिक शोधपरक लेख न्यूयार्क में अपनी पढाई के दिनों में ही लिखा था, ‘भारत में जाति व्यवस्था: संरचना, उत्पत्ति और विकास (कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट). डा. अम्बेडकर के विपरीत महात्मा गांधी वर्णव्यवस्था के समर्थक थे और उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ में  बाबा साहेब के आलेख ‘ऐनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ के जवाब में विंडिकेशन ऑफ़ कास्ट’ नामक आलेख लिखा था। यह बुनियादी फर्क अपने समय के इन दो महामानवों के बीच था। गांधी जी एक भले व्यक्ति की तरह देश की जाति-समस्या से निपटना चाहते थे और डा. अम्बेडकर एक समाजविज्ञानी की तरह इसके सम्पूर्ण खात्मे का सूत्र दे रहे थे। उनके सूत्रों में से एक अंतरजातीय विवाह भी था। भारत सरकार इसके प्रोत्साहन के लिए प्रतिबद्ध है। मैं आजकल सरकार का जो विभाग देख रहा हूँ वहां अंतरजातीय विवाहों के लिए एक प्रोत्साहन राशि दी जाती है। संविधान के अनुच्छेद 15-16 में दी गयी व्यवस्था और किये गये प्रावधान इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। वे वर्ण और जाति व्यवस्था आधारित संसधानों पर वर्चस्व को धीरे-धीरे खत्म करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे।

आज जब हम उनके महा परिनिर्वाण के लगभग 63 साल बाद डा. अम्बेडकर के प्रति देश और दुनिया के बड़े वर्ग में कृतज्ञता देखते हैं और दिन-प्रति-दिन उनके महामानव स्वरूप को विराट होते देखते हैं तो हमें गर्व होता है कि दुनिया में डा.अम्बेडकर के रूप हमारे देश ने एक ऐसा व्यक्तित्व, एक ऐसा विचार दिया है जिससे देश और दुनिया का शोषित जनसमूह अपनी ताकत पाता है, जिनमें अपने संघर्ष की प्रेरणा देखता है। यह सदियों में कभी-कभी घटित होने वाली घटनायें होती हैं जब कोई एक व्यक्ति अपने जीवन काल में समता की दिशा में न सिर्फ परिवर्तन कर पाता है बल्कि सतत परिवर्तन का विचार अपने बाद छोड़ जाता है। भारत में इस प्रसंग में भगवान बुद्ध के बाद डा अम्बेडकर एक ऐसी ही परिघटना थे। यहाँ तक कार्ल मार्क्स, जिनका विचार सर्वकालिक महान विचारों में से एक है अपने जीवन में किसी ऐसे परिवर्तन के अगुआई नहीं कर रहे थे, जैसा डा. अम्बेडकर ने किया. कार्ल मार्क्स का अधिकतम जीवन पुस्तकालयों में बीता और डा अम्बेडकर का जीवन पुस्तकालय और सडक पर समन्वय के साथ बीता, वे चिंतन और कार्य, दोनो स्तरों पर पीड़ित मानवता के लिए संघर्षरत रहे। इसीलिए इस देश में आज डा. अम्बेडकर उत्तरोत्तर प्रासंगिक होते जा रहे हैं।

भारत सरकार इन दिनों डा. अम्बेडकर के कार्यों को स्थाई स्मरण देने का काम कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल से 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिस बाबा साहेब द्वारा लिखित संविधान को संविधान सभा ने अंगीकार किया था. बाबा साहेब से जुड़े पञ्च स्थलों को उन्होंने ‘पंचतीर्थ’ का नाम दिया है। सरकार और प्रधानमंत्री द्वारा इन पहलों को बाबा साहेब को दिये जाने वाले सम्मान के रूप में देखना चाहिए।

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