भारतीय वायुसेना के पहले ऑपरेशन का गवाह मीरनशाह क्यों है महत्वपूर्ण, जानिए पूरी कहानी

भारतीय वायु सेना के इतिहासकार अंचित गुप्ता मीरनशाह के इतिहास को बता रहे जिसमें संभवतः बर्मा अभियान में भारतीय वायु सेना के प्रवेश की नींव रखी।

Dheerendra Gopal | Published : Jan 27, 2023 6:03 PM IST / Updated: Jan 27 2023, 11:37 PM IST

Indian Air Force's first operation: भारतीय वायुसेना के इतिहास में पहला ऑपरेशन वजीरिस्तान में था। वजीरिस्तान, आज के अफगानिस्तान सीमा पर स्थित है। आईएएफ का बेस किला था जो मीरनशाह में था जिसे लैंडिंग ग्राउंड बनाया गया था। दरअसल, यही वह एरिया था जहां से रूसी हमले से बचने के लिए ब्रिटिशर्स ने रणनीति बनाई थी। यह बेस अफगान युद्ध का भी गवाह रहा है।

पहले इसके बैकग्राउंड को जानते...

दरअसल, 1849 के दूसरे सिख युद्ध के बाद उत्तर-पश्चिम सीमांत ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया। अंग्रेजों ने नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर को दो भागों में विभाजित किया। पहला ब्रिटिश भारत के शासन में आने वाला एक आबाद एरिया और दूसरा अफगान बार्डर से सटा एक ऑटोनामस आदिवासी एरिया। इसके पीछे अंग्रेजों के दो उद्दश्य थे। पहला पठान जनजातियों (जिन्होंने ब्रिटिश नियंत्रण का जमकर विरोध किया) को पहाड़ों से बसे हुए,को कानून का पालन करने वाले तराई क्षेत्रों में छापा मारने से रोकना था। दूसरा उत्तर पश्चिम (द ग्रेट गेम!) से रूसी आक्रमण को रोकना था। हालांकि, 1900 से रूस के साथ ब्रिटिश संबंधों में सुधार हुआ। इसके बाद अधिकांश नियमित सैनिकों को आदिवासी क्षेत्रों से वापस कर लिया गया। इसके बाद लोकल मिलिशिया को जिम्मेदारी दे दी गई जोकि ब्रिटिश इंडियन आर्मी ऑफिसर्स द्वारा कमांड किया जाता था। इसमें खैबर राइफल्स और टोची स्काउट्स जैसी यूनिट्स भी शामिल थीं।

मीरनशाह कई चौकियों व किले वाला गांव था...

मीरनशाह जिसे स्थानीय वज़ीरी उच्चारण में मिरूम शाह कहा जाता है, एक बेहद महत्वपूर्ण गांव है। एक छोटे से गांव मीरनशाह में कई चौकियां और किले थे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण टोची किला था जो दांडे मैदान के दक्षिणी किनारे पर था। यह गांव टोची नदी के किनारे स्थित था। टोची किला को 1905 में अंग्रेजों ने एक चौकी के रूप में स्थापित किया। पहले यह टोची स्काउट्स के कब्जे में था। इस चौकी से क्षेत्र के प्रमुख गांवों रमज़क, दत्ता खेल, स्पिनवाम, दोसाली, शावर और डावर की निगरानी या कंट्रोल होता था।

अफगान युद्ध के लिए मीरनशाह एक प्रमुख केंद्र था...

मीरनशाह में वर्षों तक जनजातीय हमले जारी रहे। हालांकि, तीसरे अफगान युद्ध 1919 में अफगानों ने वजीरिस्तान पर आक्रमण किया। यही वह समय था जब यहां कबीलों का उदय हुआ। इसके बाद मीरनशाह क्षेत्र व सीमावर्ती क्षेत्रों पर ब्रिटिशर्स ने कंट्रोल के लिए पूरी ताकत झोंक दी। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना के दस हजार से अधिक सैनिक भाग लिए जिसमें 1300 से अधिक वीरगति को प्राप्त किए। एयर फोर्स ने इसमें अहम भूमिका निभाई। BE2Cs, ब्रिस्टल F2Bs, डी हैविलैंड DH9As और DH-बॉम्बर्स के पांच रॉयल एयर फोर्स (RAF) स्क्वाड्रनों का इस्तेमाल अफगानों और जनजातियों पर हमला के लिए किया गया। हालांकि, हवाई हमलों से यह संघर्ष समाप्त हुआ। इसके बाद मीरनशाह का इस्तेमाल कई मिशन के लिए किया गया।

1923 में मीरनशाह को एयर बेस बनाया और पहली बार स्वतंत्र युद्ध

अफगान युद्ध और जनजातियों पर हवाई हमले से मिली सफलता के बाद ब्रिटिशर्स ने यहां एक स्काउट्स बेस बनाने का निर्णय लिया। नवम्बर 2023 में ब्रिटिश इंडिया गवर्नमेंट ने मीरनशाह को आरएएफ बेस बनाया। वजीरिस्तान में सरकार ने रॉयल एयर फोर्स के लिए एक रनवे का मीरनशाह किले के उत्तरी हिस्से का निर्माण 1925 में कराया गया।

1925 में आएएफ ने विंग कमांडर आरसीएम पिंक की कमान के साथ मीरनशाह बेस से आदिवासियों पर हवाई हमले किए। यह हवाई हमला सेना के समर्थन के बिना था। यह पिंक्स वॉर के रूप में जाना जाता है। इस युद्ध के दौरान 54 दिनों में आदिवासियों पर दिन/रात के हमले में 250 टन बम गिराए गए। यह पहली बार था जब आरएएफ स्वतंत्र रूप से युद्ध कर रहा था। 1 मई 1925 को आदिवासी नेताओं ने नरमी बरती और शांति के समझौते पर आगे बढ़े। इस अभियान में केवल दो जानें गई थी और एक विमान को नुकसान पहुंचा था। तब से आरएएफ ने उत्तर पश्चिमी फ्रंटियर पर संचालन के लिए मीरनशाह में कम से कम एक उड़ान बनाए रखी। 1937 तक ऐसी उड़ानें विशेष रूप से RAF स्क्वाड्रन 5,20,28,31 और 60 द्वारा वैपिटी/ऑडेक्स विमानों के साथ की जाती थीं। आमतौर पर उड़ानें दो महीने के लिए रोटेशनल बेसिस पर रहती थीं।

1936 में Ipi के फकीर के रूप में प्रसिद्ध गाजी मिर्जाली खान वजीर ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जिहाद शुरू किया। Ipi के फकीर और उनके अनुयायियों के खिलाफ आरएएफ विमान और ऑर्मर्ड कारों सहित 30 हजार से अधिक सैनिकों को तैनात किया गया था।

1933 में आईएएफ स्क्वाड्रन के गठन के बाद 1936 में आईएएफ स्क्वड्रन को 20 स्क्वाड्रन आरएएफ के साथ पेशावर के द्रिग रोड कराची में उड़ान भरा। हालांकि, भारतीय वायुसेना को अभी तक एयर ऑपरेशन्स के लिए कंफिडेंस नहीं माना गया और पेशावर में ही रहने के लिए कहा गया। वास्तव में अधिकारियों को छुट्टी पर जाने के लिए कहा गया था। अगस्त 1937 में रेड लेटर डे तक पेशावर में स्क्वाड्रन रहा जब उसे मीरनशाह के लिए जाने को कहा गया।

मीरनशाह में भारतीय वायुसेना ने बनाया रिकॉर्ड

मीरनशाह में भारतीय वायु सेना की पहली टुकड़ी (ए फ्लाइट, 1 स्क्वाड्रन) 31 अगस्त से 21 अक्टूबर 1937 तक और फिर नवंबर में पांच दिनों तक रही। उन्होंने 100 प्रतिशत सर्विसिबिलिटी के साथ 1,400 ऑपरेशनल घंटों में उड़ान भरी साथ ही आरएएफ के सभी पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिए। इसके बाद भारतीय वायुसेना के यहां के पायलट बेहद उम्दा तरीके से अनुभव लेकर निकले और फिर आसमान में नई इबारत लिखते गए।

फिर तो कर लो दुनिया मुट्ठी की सोच के साथ हवा में रंग भरते रहे...

जैसे ही भारतीय वायुसेना के पायलटों का विश्वास बढ़ा, कुछ सरल और साहसी कदम सामने आए। एक बार एक पिकेट घेर कर कब्जा कर लिया गया तो सुब्रतो मुखर्जी ने अपनी बंदूकों से उस पिकेट को बचाया। अपनी विमान से हवाई हमले कर पिकेट को बचा लिया। ऐसे ही एक स्थिति में मेहर सिंह ने साहसिक लैंडिंग कर दुश्मनों से क्षेत्र को बचाया। उनके साथी एयर गनर गुलाम अली भी कई ऐसे कारनामे उनके बाद करते रहे और विभिन्न शत्रुतापूर्ण स्थितियों में बचाते रहे। अर्जन सिंह, एसएन गोयल, गुलाम अली जैसे अनगिनत नाम हैं जो भारतीय वायुसेना की इबारत लिखते रहे। भारतीय वायुसेना के लिए वज़ीरिस्तान का चैंपियन एस्पी इंजीनियर, उन केवल चार अधिकारियों में से एक थे और एकमात्र भारतीय थे, जिन्हें दो बार मेंशन-इन-डिस्पैच के अलावा, संचालन के लिए एक विशिष्ट फ्लाइंग क्रॉस (DFC) प्राप्त हुआ था। उनकी प्रतिष्ठित फ्लाइंग क्रॉस एक बड़ी उपलब्धि थी।

मीरनशाह के ऑफिसर्स बेहद अनुभवी...

भारतीय वायु सेना ने मीरनशाह के पूर्व उड़ान दुर्घटनाओं में कई पायलटों को खोया था। लेकिन मीरनशाह में एकमात्र फ्लाइंग ऑफिसर मूसा को खोया जो 13 मई 1942 को दत्ता खेल सीज के दौरान 4 स्क्वाड्रन IAF के लिसेन्डर II से उड़ान भर रहा था। भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रनों ने 1947 तक मीरनशाह में एक नॉन-स्टॉप टुकड़ी रखी। मीरनशाह को 1940 में आरएएफ स्टेशन कोहाट के नियंत्रण में भी रखा गया था। कोहाट की कमान अगस्त 1943 से जून 1947 तक भारतीय वायुसेना के अधिकारियों (मुखर्जी, अस्पी, मेहर और अर्जन सिंह) ने संभाली थी। मीरनशाह IAF के लिए खास रहेगा। विंग कमांडर अवान कहते हैं कि इन ऑपरेशनों ने भारतीय वायु सेना के विस्तार को गति दी और हमें कॉलेज पैंसी के एक बैच से कठिन एविएटर बना दिया। संभवतः बर्मा अभियान में भारतीय वायुसेना के प्रवेश की नींव रखी।

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