एक समय परिवार और समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली नॉर्थ-ईस्ट की महिलाएं आज सामाजिक स्तर पर उपेक्षा के साथ शोषण की भी शिकार हैं। पहले जैसा अब उनका रुतबा नहीं रह गया है। इसके पीछे मुख्य वजह है उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होना और राजनीति में भागीदारी का लगभग नहीं के बराबर होना। मेहनत-मशक्कत भरी जिंदगी जीने का बावजूद उन्हें वह नहीं मिल पा रहा, जिसकी वे हकदार हैं।
नयी दिल्ली। आम तौर पर नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में महिलाओं की दशा देश के दूसरे राज्यों से बेहतर मानी जाती है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। नॉर्थ-ईस्ट यानी पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में परिवार में पुरुषों का वर्चस्व पहले नहीं था। वहां के आदिवासी समाजों में औरतों को खास महत्व हासिल था। इन राज्यों के इतिहास को देखा जाए तो ये मातृ प्रधान रहे हैं। पर अब धीरे-धीरे उनकी स्थिति में बदलाव आ रहा है और उन्हें कई तरह के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है। पहले के मुकाबले हर स्तर पर उनका शोषण बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य कारण आर्थिक तौर पर उनका आत्मनिर्भर नहीं होना है। जबकि पहले के परंपरागत आर्थिक-सामाजिक ढांचे में उनका योगदान ज्यादा था और वे मजबूत थीं।
परिवार की मुखियाा होती हैं महिलाएं
मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कबीलाई और जनजातीय समुदायों में महिलाएं ही परिवार की मुखिया और कर्ता-धर्ता होती हैं। लेकिन अब उनकी यह भूमिका कमजोर पड़ती जा रही है। इसके पीछे प्रमुख वजह है आर्थिक रूप से उनका स्वतंत्र नहीं होना और राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग भी नहीं कर पाना। नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में राजनीति में महिलाओं की भूमिका नगण्य है। वैसे, उनके लिए आरक्षण की मांग उठती रही है, पर इसका कड़ा विरोध भी होता रहा है। इन राज्यों में महिलाओं के प्रति हिंसा की घटनाएं भी पहले की तुलना में बढ़ी हैं।
क्या मिलेगा आरक्षण
नॉर्थ-ईस्ट की महिलाओं के सामने अभी प्रमुख सवाल ये है कि क्या उन्हें आरक्षण मिलेगा। अरुणाचल प्रदेश में तो लंबे समय से विधानसभा और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठती रही है। राज्य महिला आयोग ने भी सरकार से इस मांग पर विचार करने को कहा है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष राधिलू चाई का कहना है कि महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार को चाहिए कि अपना व्यापार शुरू करने के लिए उन्हें कम ब्याज पर कर्ज मुहैया कराये। राधिलू का यह भी कहना है कि विवाह का पंजीकरण नहीं होने से भी किसी तरह का विवाद होने पर महिलाओं को उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। राज्य में महिलाओं की आबादी ज्यादा होने के बावजूद 60 सदस्यों वाली विधानसभा में सिर्फ तीन महिला सदस्य हैं। इससे समझा जा सकता है कि राजनीति में उनकी भागीदरी कितनी कम है।
नगालैंड, मिजोरम और मणिपुर में बुरी हालत
नगालैंड, मिजोरम और मणिपुर में भी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। नगालैंड में स्थानीय निकायों में पिछले वर्ष जब महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सरकार ने घोषणा की तो कई संगठनों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन इतना उग्र हो गया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ची.आर. जेलियांग को इस्तीफा देना पड़ा। जहां तक मेघालय का सवाल है तो नॉर्थ-ईस्ट का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले इस राज्य में महिलाओं को सबसे ज्यादा अधिकार मिले हैं। यहां की महिलाएं शादी होने के बाद भी अपने पति के घर नहीं जातीं, बल्कि पति को ही उऩके घर पर रहना होता है। लेकिन ऐसे मातृ प्रधान समाज में भी अब महिलाओं का शोषण बढ़ता जा रहा है।
मिजोरम में भी हालात कुछ ऐसे ही हैं। इस रा्ज्य की अर्थव्यवस्था के साथ घरेलू और सामाजिक मामलों में भी महिलाओं की भूमिका अहम थी। राजधानी आइजल में ज्यादातर दुकानों में महिलाएं ही नजर आती हैं। सरकारी नौकरियों में भी उनकी अच्छी-खासी भागीदारी है, पर पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर उन्हें दबा कर रखने की कोशिश की जाती है।
मणिपुर और नगालैंड में उग्रवाद और सरकारी उत्पीड़न के चलते महिलाओं का बुरा हाल है। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में ही दुनिया का इकलौता एम्मा बाजार है, जहां सभी दुकानदार महिलाएं ही हैं, फिर भी सशस्त्र बलों द्वारा उनका बहुत उत्पीड़न किया जाता है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) के खिलाफ इरोम शर्मिला का आंदोलन और उनकी भूख हड़ताल दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं, पर जब उन्होंने राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ा तो जमानत भी नहीं बचा सकीं। यह कैसी विडम्बना है। मणिपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता ओ. दोरेंद्र सिंह का कहना है कि जब तक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ेगी, तब तक उनकी हालत में सुधार संभव नहीं है। उनका कहना है कि मातृसत्तात्मक समाजों में भी अब पुरुष प्रधान मानसिकता हावी होती जा रही है।