
बिहार चुनाव 2025: बिहार की राजनीति के सबसे रोमांचक और विवादास्पद अध्यायों में से एक है - 1993 का वह साल जब आनंद मोहन सिंह ने अपनी राजनीतिक यात्रा की एक नई शुरुआत की। यह वह दौर था जब पूरा उत्तर भारत राजनीतिक उथल-पुथल के बीच था और मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई अपने चरम पर थी।
1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीति दो बड़े मुद्दों पर बंटी हुई थी। एक तरफ भाजपा राम मंदिर आंदोलन के जरिए कांग्रेस को चुनौती दे रही थी, वहीं दूसरी ओर विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री काल में मंडल आयोग की सिफारिशों ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया था। बिहार में जनता दल के दिग्गज नेता शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान मंडल आयोग के समर्थन में मजबूती से खड़े थे। लेकिन राजपूत बिरादरी से आने वाले आनंद मोहन का रुख बिल्कुल अलग था।
कहानी 1991 से शुरू होती है जब केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार थी। जनता दल में विभाजन के बाद चंद्रशेखर ने अलग समाजवादी जनता पार्टी बनाई थी। इसी दौरान बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने एल.के. आडवाणी की रथ यात्रा रोककर उन्हें गिरफ्तार करवा दिया था, जिससे राजनीतिक माहौल और तनावपूर्ण हो गया था। महिषी विधानसभा सीट से जनता दल के टिकट पर चुने गए आनंद मोहन ने इसी पृष्ठभूमि में पार्टी से अलग होने का फैसला किया। वे 27% ओबीसी आरक्षण के विरोधी नेताओं के गुट में शामिल हो गए और चंद्रशेखर के समर्थन में आ गए।
1993 में आनंद मोहन ने औपचारिक रूप से 'बिहार पीपुल्स पार्टी' की स्थापना की। यह कदम न केवल उनके राजनीतिक करियर का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि बिहार की जातिगत राजनीति में एक नए ध्रुवीकरण की शुरुआत भी थी। उस समय आनंद मोहन की छवि सिर्फ एक राजनेता की नहीं थी। वे एक कुख्यात अंडरग्राउंड नेटवर्क भी चलाते थे जो ओबीसी आरक्षण समर्थकों को निशाना बनाता था। राजपूत और ब्राह्मण समुदाय के बीच वे आरक्षण विरोधी आंदोलन के युवा चेहरे बनकर उभरे थे। 1991 के लोकसभा चुनाव में आनंद मोहन ने एक साहसिक कदम उठाया। उन्होंने यादवों का गढ़ माने जाने वाले मधेपुरा से चुनाव लड़ने का ऐलान किया। बिहार की प्रसिद्ध कहावत "रोम पोप का और मधेपुरा गोप का" को चुनौती देते हुए उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा।
इसी दौरान कोसी-सीमांचल के बाहुबली नेता पप्पू यादव भी राजनीतिक मंच पर सक्रिय थे। आरक्षण समर्थक पप्पू यादव और आरक्षण विरोधी आनंद मोहन के बीच शुरू हुई यह दुश्मनी आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति को गहरे तक प्रभावित करने वाली थी।
1993 में आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी की स्थापना बिहार की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई। यह न केवल जातिगत राजनीति के नए समीकरण की शुरुआत थी, बल्कि इससे यह भी साबित हुआ कि आरक्षण का मुद्दा कैसे राजनीतिक गठबंधनों को तोड़-मरोड़ कर नई राजनीतिक शक्तियों को जन्म दे सकता है। आज तीन दशक बाद भी बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण और आरक्षण के मुद्दे की जड़ें उसी दौर में तलाशी जा सकती हैं जब आनंद मोहन ने अपना अलग राजनीतिक रास्ता चुनने का साहसिक फैसला किया था।
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