
Bihar Chunav 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदलने वाले हैं। इस बार सत्ता की चाबी अति पिछड़ी जातियों के हाथ में है, जिनकी 112 उपजातियां राज्य की कुल आबादी का 36 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह चुनाव अति पिछड़ी जातियों के राजनीतिक उभार का सबसे बड़ा सबूत बनने जा रहा है और भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत करेगा। एनडीए और महागठबंधन दोनों ही गठबंधनों का पूरा जोर इस बार उन जातियों पर है, जिनकी अब तक सत्ता में भागीदारी नगण्य रही है। कुम्हार, नाई, मालाकार, खतवे, धोबी, तेली, कलवार, कहार जैसी जातियां अब राजनीतिक मुख्यधारा में आने को तैयार हैं।
बिहार की राजनीति में पिछले सात दशकों से अति पिछड़ी जातियों की स्थिति हाशिए पर रही है। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद भी इन जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व में वह हिस्सा नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। जबकि यादव, कुर्मी, कोइरी जैसी अन्य पिछड़ी जातियों ने राजनीतिक सत्ता में अपनी मजबूत पकड़ बनाई, अति पिछड़ी जातियां वोट देने वाली मानी गईं, लेकिन नेतृत्व करने वाली नहीं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को अति पिछड़ी जातियों का सबसे बड़ा पैरोकार मानते हैं। उनका तर्क है कि उन्होंने न केवल इन जातियों को आरक्षण दिलाया बल्कि प्रशासनिक नियुक्तियों में भी उन्हें प्राथमिकता दी है।
जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिलाना भी NDA का मास्टर स्ट्रोक साबित हो रहा है। नाई जाति से आने वाले कर्पूरी ठाकुर को यह सम्मान दिलाकर प्रधानमंत्री मोदी ने अति पिछड़ी जातियों के बीच भावनात्मक जुड़ाव बनाने का काम किया है।
लोकसभा चुनाव के बाद राजद ने भी अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी मंगनी लाल मंडल (कलवार जाति) को देकर पार्टी ने साफ संदेश दिया है कि वह अति पिछड़ी जातियों को अपने करीब लाना चाहती है।
लालू प्रसाद का कुशवाहा बिरादरी को साधने का फॉर्मूला पहले ही कामयाब साबित हो चुका है। उन्होंने ललन सिंह, मुकेश सहनी जैसे नेताओं को पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान देकर इस समुदाय का भरोसा जीता था। अब वे इसी रणनीति को अन्य अति पिछड़ी जातियों के लिए भी अपना रहे हैं। तेजस्वी यादव ने हाल ही में कहा था, "हमारी पार्टी हमेशा से सामाजिक न्याय की पैरोकार रही है। अब समय आ गया है कि अति पिछड़े समुदाय भी नेतृत्व की भूमिका में आएं।"
महागठबंधन का तीसरा बड़ा घटक भाकपा माले 2020 से ही इस रणनीति पर काम कर रहा है और इसका फायदा भी उठा चुका है। पिछली बार उसे मिली 19 सीटों पर सभी पिछड़ी-अति पिछड़ी, दलित और अल्पसंख्यक उम्मीदवार उतारे गए, जिनमें से 12 पर जीत भी मिली।
राहुल गांधी के बढ़े हुए बिहार दौरों के साथ कांग्रेस की रणनीति में भी स्पष्ट बदलाव दिख रहा है। पहले पार्टी का भरोसा मुख्यतः ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं पर था, लेकिन अब यह त्रिकोण बदलकर "ब्राह्मण-दलित-अति पिछड़ा" हो गया है। चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष की कमान एक दलित नेता राजेश कुमार को सौंपकर पार्टी ने अपना इरादा साफ कर दिया है। साथ ही, विभिन्न जिलों में अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जा रहा है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि कांग्रेस हमेशा से समावेशी राजनीति की पैरोकार रही है। अब हम इसे और भी व्यापक बना रहे हैं।
अति पिछड़ी जातियों का राजनीतिक उत्थान केवल चुनावी गणित का मामला नहीं है, बल्कि इसके व्यापक सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं। इन जातियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ने से उनके आर्थिक हितों की भी बेहतर सुरक्षा होगी। परंपरागत रूप से, ये जातियाँ कृषि मज़दूर, छोटे व्यवसाय और सेवा क्षेत्र में कार्यरत रही हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलने से इन समुदायों के लिए शिक्षा और रोज़गार के नए अवसर खुलेंगे। आरक्षण नीति का भी बेहतर क्रियान्वयन होगा।
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