बिहार हिंसा के बाद एक नई तस्वीर उभर कर सामने आई है। कुछ 'एक्टिविस्ट' समाज को दो खेमों में बांटते दिख रहे हैं तो उसी बीच कुछ उन्हीं को आईना दिखा रहे हैं। उसमें सोशल मीडिया के जरिए फैलाई जा रही अफवाहों का भी बड़ा 'रोल' है।
पटना। बिहार हिंसा के बाद एक नई तस्वीर उभर कर सामने आई है। कुछ 'एक्टिविस्ट' समाज को दो खेमों में बांटते दिख रहे हैं तो उसी बीच कुछ उन्हीं को आईना दिखा रहे हैं। उसमें सोशल मीडिया के जरिए फैलाई जा रही अफवाहों का भी बड़ा 'रोल' है। हिंसा के दौरान अफवाहों का बाजार इतना गर्म था कि नालंदा प्रशासन को उन अफवाहों का बिन्दुवार जवाब देना पड़ा।
मदरसे की मरम्मत के लिए धन जुटाने को फंड रेजिंग की अपील
बिहारशरीफ में हिंसा के दौरान 100 साल पुरानी 'मदरसे अजीजिया' जला दी गई। उसमें रखी लगभग 4000 किताबें भी जलकर खाक हो गईं। 'एक्टिविस्ट' व सामाजिक कार्यकर्ता आसिफ मुज्तबा ने अपने एनजीओ के जरिए मदरसे की मरम्मत के लिए फंड इकट्ठा करने की अपील की। वह एक समुदाय के लिए फंड इकट्ठा करने की बात कर रहे थे।
इधर फंड रेजिंग को नकारती आवाज
पत्रकार मीर फैसल ने सोशल मीडिया पर ही उनका जवाब दिया। उन्होंने लोगों से धन नहीं जुटाने के लिए कहा। उनका कहना है कि लोग राहत कार्य के लिए सरकार से आग्रह करें। आखिरकार, दंगा पीड़ित इस देश के नागरिक हैं, और जीवन और संपत्ति की सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी है। साकिब सलीम ने एक वेबसाइट पर किए गए पोस्ट में लिखा है कि इससे साफ है कि यह फंड मुसलमानों द्वारा, मुसलमानों से और मुसलमानों के लिए ही जुटाया जाएगा। इसका मकसद मुसलमानों में सामुदायिक भावना पैदा करना है। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के भीतर समुदायों को अपनी समस्याओं को अलग-थलग करके देखना चाहिए? हालांकि सरकार भी मदरसे की मरम्मत के लिए जरुरी कार्यवाही करती दिख रही है।
सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के दावे भी अजीब
उनका कहना है कि सोशल मीडिया पर एक इन्फ्लुएंसर ने अप्रत्यक्ष रूप से यह भी दावा किया कि चूंकि बिहार के मुख्य सचिव एक मुस्लिम हैं, इसलिए हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है। एक अन्य सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, बाला ने भी ट्वीट किया कि जबकि भारत अमृत काल में प्रवेश कर गया है, बिहार अभी भी 1947 में अटका हुआ है, जहां हिंदू अपनी मान्यताओं को स्वतंत्रता से निभा नहीं सकते। देखा जाए तो इस तरह ये 'एक्टिविस्ट' भी भारतीय समाज को दो खेमों में बांट रहे हैं। साकिब सलीम लिखते हैं कि हमें दंगा पीड़ितों की मदद करने की जरूरत है न कि पीड़ितों के जाति के पहचान की। मतलब कि हमें दंगाइयों की पहचान करने की जरूरत है न कि उनके जाति के पहचान की।
पीड़ितों की धर्म के आधार पर पहले पहचान जरुरी है या मदद
बिहार में रामनवमी जुलूस के दौरान हिंसा के बाद नालंदा जिले के बिहारशरीफ और रोहतास जिले के सासाराम में हिंसक घटनाओं की आग भड़क उठी। जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। करोड़ों की संंपत्तियां भी स्वाहा हुईं। सत्ताधारी दल ने हिंसा को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की साजिश करार दिया। ध्यान देने की बात यह है कि एक समूह गुलशन कुमार की हत्या पर बढ़ चढ़ कर बात कर रहा है, जबकि दूसरे समूह का भी ध्यान सिर्फ एक हेरिटेज मदरसे की आगजनी पर है। पीड़ितों और दंगाइयों का भी धर्म देखा जा रहा है। ऐसे में लाख टके का सवाल उठता है कि क्या ऐसा करना उचित है? क्या हमें दंगाइयों के पहचान की जरुरत है या उनके धर्म के पहचान की? क्या पीड़ितों की धर्म के आधार पर पहले पहचान जरुरी है या उनकी मदद?