
पटनाः बिहार की राजनीति का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही दिलचस्प भी। कभी एक गठबंधन ने रातोंरात करवट ली, तो कभी एक मामूली फैसले ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हिला दी। 1970 में ऐसा ही एक वाकया हुआ, जब एक सरकारी बस कंडक्टर के सस्पेंशन ने राज्य की सरकार गिरा दी।
बात है साल 1970 की, जब कांग्रेस नेता दारोगा प्रसाद राय बिहार के मुख्यमंत्री थे। लेकिन उनकी सरकार मुश्किल से 10 महीने ही टिक पाई और उसकी वजह कोई बड़ा घोटाला या आंदोलन नहीं, बल्कि एक बस कंडक्टर का सस्पेंशन था। बिहार राज्य परिवहन निगम के एक आदिवासी कंडक्टर को सेवा से निलंबित कर दिया गया था। मामला विभागीय था, छोटा लग रहा था, लेकिन राजनीति में ‘छोटे’ की परिभाषा अक्सर बड़ी हो जाती है। इस बार भी वही हुआ।
कंडक्टर झारखंड क्षेत्र से ताल्लुक रखता था, और उसका पक्ष लिया झारखंड पार्टी के वरिष्ठ नेता बागुन सुम्ब्रुई ने। उन्होंने मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय से कहा कि सस्पेंशन तुरंत वापस लिया जाए। लेकिन सरकार ने इसे प्रशासनिक मामला बताते हुए कदम पीछे नहीं खींचे। यह इनकार, राजनीति के पन्नों में एक नई कहानी लिख गया।
सुम्ब्रुई ने नाराज होकर न सिर्फ समर्थन वापस लिया, बल्कि अपने साथ मौजूद 11 विधायकों का भी साथ खींच लिया। दारोगा प्रसाद राय की सरकार जो पहले ही पतले बहुमत पर टिकी थी, अब अल्पमत में आ गई। कांग्रेस बहुमत साबित नहीं कर सकी और सरकार गिर गई।
यह घटना सिर्फ एक सरकार गिरने की कहानी नहीं, बल्कि उस दौर की राजनीतिक अस्थिरता की झलक है। 1970 का बिहार राजनीतिक रूप से उबल रहा था, हर दल, हर नेता अपने हिस्से की ताकत तलाश रहा था। ऐसे में जब कंडक्टर का सस्पेंशन वापस नहीं लिया गया, तो यह ‘छोटा प्रशासनिक फैसला’ एक राजनीतिक भूकंप में बदल गया।
दारोगा प्रसाद राय की सरकार गिरने के बाद कर्पूरी ठाकुर सत्ता में आए और बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ। उन्होंने समाज के वंचित तबकों को राजनीति की मुख्यधारा में लाने का रास्ता खोला। लेकिन यह सब उस “एक फैसले” के बाद ही संभव हुआ जो शायद उस वक्त किसी ने गंभीरता से नहीं लिया था।
आज जब 2025 के चुनावी मौसम में नेता गठबंधन, सीट बंटवारे और जातीय समीकरणों में उलझे हैं, तो यह कहानी हमें याद दिलाती है कि बिहार की राजनीति में कोई मुद्दा छोटा नहीं होता। यहां एक कंडक्टर का मामला भी मुख्यमंत्री की कुर्सी हिला सकता है। राजनीति सिर्फ बहुमत का खेल नहीं, विश्वास और सम्मान का भी खेल है। दारोगा प्रसाद राय की सरकार इसका सबसे जीवंत उदाहरण है।
बिहार की राजनीति हमेशा अप्रत्याशित रही है, जहां एक भाषण, एक बयान, या एक प्रशासनिक आदेश पूरा समीकरण पलट देता है। दारोगा प्रसाद राय के इस मामले से भी कुछ ऐसा ही समझ आता है कि राजनीति में इंसाफ और अहंकार के बीच की रेखा बहुत पतली होती है और कभी-कभी, वही रेखा पूरी सरकार को निगल जाती है।
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