मोकामा में दुलारचंद यादव हत्याकांड के बाद याद आ गया 1990 का वो बिहार चुनाव-हुई थी 87 मौत

Published : Oct 31, 2025, 11:00 AM IST
election violence

सार

बिहार में मोकामा हत्याकांड ने 1980-90 के दशक की चुनावी हिंसा की काली यादें ताजा कर दी हैं। उस दौर में बूथ कैप्चरिंग और हत्याएं आम थीं, 1990 में 87 मौतें हुईं। 2005 के बाद शांतिपूर्ण चुनावों का दौर आया, पर यह घटना उस पर सवाल उठाती है।

पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण में मोकामा से आई गोलीबारी और जन सुराज समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या ने पूरे राज्य को झकझोर दिया है। पिछले दो दशकों से बिहार ने खुद को 'शांतिपूर्ण चुनाव' के मॉडल के रूप में स्थापित किया था, लेकिन इस एक घटना ने कानून-व्यवस्था और चुनाव आयोग की तैयारियों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह घटना उन 'काली यादों' को ताजा करती है, जब बिहार का नाम चुनावी हिंसा, बूथ लूट और अपहरण का पर्याय बन गया था। मोकामा हत्याकांड यह चिंता पैदा करता है कि क्या बिहार की राजनीति फिर से उस भयावह दौर की तरफ मुड़ रही है।

1980 और 1990 का भयावह दशक: जब मतदान था डर

1980 के दशक से लेकर 1990 के दशक के मध्य तक बिहार में मतदान का सीधा मतलब डर और दहशत हुआ करता था। बाहुबलियों का दबदबा इतना गहरा था कि कई बूथों पर गोलियां चलना, पर्ची फाड़ना और 'बूथ कैप्चरिंग' आम बात थी। भारत में बूथ कैप्चरिंग शब्द का पहला आधिकारिक रिकॉर्डेड मामला भी बिहार से ही जुड़ा है। यह 1957 में बेगूसराय जिले में पहली बार सुर्खियों में आया, जिसके बाद यह पूरे राज्य में फैल गया।

मौतों का सबसे काला आंकड़ा: चुनावी हिंसा में मौतों का आंकड़ा 1990 के विधानसभा चुनाव में अपने चरम पर पहुंचा। उस चुनाव में 87 लोगों की जान गई थी, जो बिहार के चुनावी इतिहास में सबसे भयावह घटना मानी जाती है। इससे पहले, 1977 में 26 और 1985 में 69 लोगों की मौत हुई थी। 1977 से 1995 के बीच तो हत्या, धमकी और अपहरण चुनावों का एक अपरिहार्य हिस्सा बन गए थे।

सियासी हिंसा की काली यादें: नेताओं का कत्लेआम

राज्य की राजनीतिक जमीन खून से कई बार लाल हुई है। चुनावी रंजिशें केवल समर्थकों तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि कई बड़े नेताओं को भी इसका शिकार बनना पड़ा। 1960 के दशक से लेकर 1990 तक, बिहार में कई बड़े राजनीतिक हत्याएं हुईं। शक्ति कुमार, मंज़ूर हसन, अशोक सिंह और बृज बिहारी प्रसाद जैसे नाम बिहार की सियासी हिंसा की काली याद हैं। बृज बिहारी प्रसाद, जो बिहार सरकार में मंत्री थे, उनकी हत्या ने तो राज्य की कानून-व्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। कई बार हत्या के बाद शव तक नहीं मिले और न्याय दशकों तक अधूरा रह गया। मोकामा में दुलारचंद यादव की हत्या, जिसमें विरोधी बाहुबली के समर्थकों पर सीधे आरोप लग रहे हैं, उसी पुरानी और खतरनाक प्रवृत्ति की वापसी का संकेत देती है।

'सुशासन' ने बदली थी तस्वीर

बिहार में चुनावी माहौल में बदलाव 2005 के बाद आया। नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रशासन ने चुनावी हिंसा पर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती, बूथों पर वीडियोग्राफी और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के प्रभावी उपयोग ने हिंसक तत्वों पर लगाम लगाई।

2010 से अब तक लगभग सभी विधानसभा चुनाव शांति से संपन्न हुए थे। चुनावी हिंसा में मौतों के आंकड़े लगभग शून्य के करीब पहुंच गए थे। यह बदलाव बिहार के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, जिसने उसकी राष्ट्रीय छवि को सुधारा।

चुनावी रंजिशें अब भी गहरी!

मोकामा में हुई हत्या इस नए 'शांति मॉडल' के लिए एक बड़ा खतरा है। यह घटना दर्शाती है कि बाहुबल की राजनीति पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है, बल्कि नए रूप में जीवित है। दुलारचंद यादव की हत्या की टाइमिंग (चुनाव के ठीक बीच) और जिस तरह से यह हत्या हुई (काफिले पर हमला, गोलीबारी) से स्पष्ट है कि चुनावी रंजिशें अब भी गहरी हैं। चुनाव आयोग और पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वे मोकामा जैसी घटनाओं को राज्य के अन्य हिस्सों में फैलने से रोकें, ताकि बिहार की जनता बिना डर के अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके।

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