सूरजभान से मुन्ना शुक्ला तक...बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का सफर, किंगमेकर से ‘किंग’ बनने तक की कहानी

Published : Sep 22, 2025, 09:39 AM ISTUpdated : Sep 22, 2025, 01:05 PM IST
Bihar Election 2025 surajbhan munna shukla bahubali

सार

बिहार चुनाव 2025 से पहले बाहुबलियों की राजनीति पर खास रिपोर्ट। 1970 से 2000 तक निर्दलीय बाहुबलियों का उदय, पप्पू यादव, प्रभुनाथ सिंह से लेकर सूरजभान और मुन्ना शुक्ला तक का सफर। जानें कैसे बने किंगमेकर से किंग।

बिहार की सियासत में एक समय ऐसा था, जब बाहुबली नेता केवल दूसरों को सत्ता दिलाने का काम करते थे। बंदूक और खौफ की ताकत से वे उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करते थे। लेकिन धीरे-धीरे राजनीति का आकर्षण खुद इन बाहुबलियों को अपनी ओर खींचने लगा। सवाल उठा कि जब वे दूसरों को जिता सकते हैं तो खुद क्यों नहीं? इसी सोच ने बिहार की राजनीति में निर्दलीय बाहुबलियों के दौर की शुरुआत की।

1970 से 1990: बाहुबलियों का सुनहरा दौर

1970 के दशक से 1990 तक बिहार विधानसभा में दो दर्जन से अधिक बाहुबली चुनाव जीतकर पहुंचे। इनमें से अधिकांश ने शुरुआत निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में की। वीर महोबिया, वीर बहादुर सिंह, प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, पप्पू यादव, राजन तिवारी और मुन्ना शुक्ला जैसे नाम इसी दौर में उभरे।

  • वीर महोबिया – वैशाली के बड़े बाहुबली, जिन्होंने 1980 में जन्दाहा से निर्दलीय जीत हासिल की।
  • वीर बहादुर सिंह – बक्सर के कुख्यात बाहुबली, जिन्होंने 1980 में निर्दलीय जीत दर्ज की।
  • प्रभुनाथ सिंह – सारण से उभरे और 1985 में मशरक से निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे।

1990 का दशक: पप्पू यादव का उदय

90 के दशक में कोसी और सीमांचल का नाम आते ही पप्पू यादव का खौफ दिखता था। 23 साल की उम्र में ही उन्होंने सिंहेश्वर से निर्दलीय चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक पारी शुरू की। बहुत कम समय में उन्होंने समानांतर सत्ता स्थापित कर ली और रगड़ा चुनावों से लेकर सदन तक, हर जगह अपनी ताकत दिखाई।

2000 में निर्दलीय बाहुबलियों की धूम

साल 2000 के विधानसभा चुनाव ने कई बाहुबलियों को सीधा मुख्यधारा में ला दिया।

  • सूरजभान सिंह – मोकामा से राबड़ी सरकार के मंत्री दिलीप सिंह को हराकर सुर्खियों में आए।
  • मुन्ना शुक्ला – छोटन शुक्ला की विरासत संभाली और वैशाली-मुजफ्फरपुर से निर्दलीय जीत दर्ज की।
  • राजन तिवारी – गोविंदगंज से दिग्गज भूपेंद्र नाथ दूबे को मात दी।

संसद और विधान परिषद में भी बाहुबलियों का दबदबा

सिर्फ विधानसभा ही नहीं, लोकसभा और विधान परिषद में भी बाहुबलियों ने निर्दलीय जीत दर्ज की।

  • काली पांडेय – 1980 में गोपालगंज से निर्दलीय सांसद चुने गए।
  • रीतलाल यादव – 2015 में दानापुर से निर्दलीय एमएलसी बने।

बाहुबलियों का बदलता सफर

निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर बाहुबली नेताओं ने राजनीतिक दलों से हाथ मिलाया। प्रभुनाथ सिंह राजद और जेडीयू दोनों में रहे, पप्पू यादव ने अपनी पार्टी बनाई, सूरजभान सिंह लोजपा से जुड़े। धीरे-धीरे इन बाहुबलियों ने खुद को सिर्फ खौफ और ताकत के जरिए नहीं, बल्कि जातीय समीकरण और संगठनात्मक राजनीति के जरिए भी स्थापित किया।

2025 चुनाव और बाहुबलियों का असर

अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 नजदीक है, सवाल उठता है कि क्या बाहुबली फैक्टर पहले जैसा असर दिखा पाएगा? आज का मतदाता सोशल मीडिया, शिक्षा और विकास के मुद्दों से जुड़ा है, लेकिन कई क्षेत्रों में अभी भी बाहुबलियों की पकड़ कायम है। खासकर उन सीटों पर जहां जातीय समीकरण और लोकल दबदबा निर्णायक होता है।

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