
बिहार की सियासत में एक समय ऐसा था, जब बाहुबली नेता केवल दूसरों को सत्ता दिलाने का काम करते थे। बंदूक और खौफ की ताकत से वे उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करते थे। लेकिन धीरे-धीरे राजनीति का आकर्षण खुद इन बाहुबलियों को अपनी ओर खींचने लगा। सवाल उठा कि जब वे दूसरों को जिता सकते हैं तो खुद क्यों नहीं? इसी सोच ने बिहार की राजनीति में निर्दलीय बाहुबलियों के दौर की शुरुआत की।
1970 के दशक से 1990 तक बिहार विधानसभा में दो दर्जन से अधिक बाहुबली चुनाव जीतकर पहुंचे। इनमें से अधिकांश ने शुरुआत निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में की। वीर महोबिया, वीर बहादुर सिंह, प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, पप्पू यादव, राजन तिवारी और मुन्ना शुक्ला जैसे नाम इसी दौर में उभरे।
90 के दशक में कोसी और सीमांचल का नाम आते ही पप्पू यादव का खौफ दिखता था। 23 साल की उम्र में ही उन्होंने सिंहेश्वर से निर्दलीय चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक पारी शुरू की। बहुत कम समय में उन्होंने समानांतर सत्ता स्थापित कर ली और रगड़ा चुनावों से लेकर सदन तक, हर जगह अपनी ताकत दिखाई।
साल 2000 के विधानसभा चुनाव ने कई बाहुबलियों को सीधा मुख्यधारा में ला दिया।
सिर्फ विधानसभा ही नहीं, लोकसभा और विधान परिषद में भी बाहुबलियों ने निर्दलीय जीत दर्ज की।
निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर बाहुबली नेताओं ने राजनीतिक दलों से हाथ मिलाया। प्रभुनाथ सिंह राजद और जेडीयू दोनों में रहे, पप्पू यादव ने अपनी पार्टी बनाई, सूरजभान सिंह लोजपा से जुड़े। धीरे-धीरे इन बाहुबलियों ने खुद को सिर्फ खौफ और ताकत के जरिए नहीं, बल्कि जातीय समीकरण और संगठनात्मक राजनीति के जरिए भी स्थापित किया।
अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 नजदीक है, सवाल उठता है कि क्या बाहुबली फैक्टर पहले जैसा असर दिखा पाएगा? आज का मतदाता सोशल मीडिया, शिक्षा और विकास के मुद्दों से जुड़ा है, लेकिन कई क्षेत्रों में अभी भी बाहुबलियों की पकड़ कायम है। खासकर उन सीटों पर जहां जातीय समीकरण और लोकल दबदबा निर्णायक होता है।
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