
Patna Gandhi Maidan Story: पटना का गांधी मैदान आज फिर सुर्खियों में है। गुरुवार, 20 नवंबर 2025 को नीतीश कुमार 10वीं बार शपथ लेने जा रहे हैं और पूरा आयोजन उसी जगह हो रहा है, जिसे हम गांधी मैदान के नाम से जानते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं इस मैदान का नाम कभी 'पटना लॉन्स' हुआ करता था। तब यह अंग्रेज अफसरों का परेड ग्राउंड माना जाता था। तो फिर यह ब्रिटिश लॉन बिहार की राजनीति का दिल कैसे बन गया? इसका इतिहास क्या है? आइए जानते हैं पूरी कहानी...
पटना के गांधी मैदान का इतिहास लगभग 200 साल पुराना है और इसकी शुरुआत ब्रिटिश प्रशासनिक प्रोजेक्ट रूप में हुई थी। 1820 के दशक में जब अंग्रेज पटना शहर को एक आधुनिक और सुव्यवस्थित प्रशासनिक ढांचे में बदल रहे थे, उसी समय एक बड़े खुले क्षेत्र को विकसित किया गया, जिसे बाद में 'पटना लॉन्स' कहा जाने लगा। यह एक विशाल, गोलाकार खुला मैदान था, जिसे अंग्रेज अधिकारियों की परेड, औपचारिक सभाओं और घुड़सवारी के लिए तैयार किया गया था। चारों ओर सड़कें बनाकर इस जगह को शहर के केंद्र में रखा गया, ताकि यह प्रशासनिक गतिविधियों का हिस्सा बना रहे। उस समय इसे एक रणनीतिक और औपचारिक ज़ोन के रूप में देखा जाता था।
ब्रिटिश शासन के अंतिम दशकों में जब स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने लगा, तब यह क्षेत्र जनता की बैठकों, भाषणों और सभाओं का हिस्सा बनने लगा। हालांकि, यह बदलाव धीरे-धीरे हुआ, लेकिन आंदोलन बढ़ने के साथ पटना लॉन्स की भूमिका भी बदलती गई। लोग यहां इकट्ठा होने लगे, नेताओं के भाषण होने लगे और इस जगह का इस्तेमाल राजनीतिक जागरूकता फैलाने के लिए होने लगा। यह वही समय था, जब पटना लॉन्स एक औपचारिक अंग्रेजी मैदान से हटकर सामाजिक और जन-आंदोलन वाले केंद्र में बदलने लगा।
आजादी के बाद इस मैदान की पहचान पूरी तरह बदल गई। 1947 में देश आजाद हुआ और कुछ ही समय बाद पटना लॉन्स को एक नया नाम 'गांधी मैदान' दिया गया। यह नाम सिर्फ राजनीतिक भावनाओं को नहीं, बल्कि पूरे शहर की बदलती सोच को भी दिखाता था। महात्मा गांधी के प्रति सम्मान और स्वतंत्रता आंदोलन की स्मृति को जिंदा रखने के लिए इस ऐतिहासिक मैदान का नाम बदलना एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव का संकेत माना गया। इसी के साथ यह मैदान जनता, राजनीति और लोकतंत्र का साझा स्थल बन गया।
आजादी के बाद पटना तेजी से बढ़ने लगा और गांधी मैदान उसके बीचों-बीच एक ऐसी जगह थी जहां हजारों लोगों से लेकर लाखों की भीड़ तक आसानी से जुट सकती थी। यही कारण है कि 1950 से 1980 तक यह जगह बिहार के राजनीतिक, सामाजिक और जन आंदोलनों का केंद्र बन गई। जेपी आंदोलन की ऐतिहासिक सभाएं, किसानों के बड़े प्रदर्शन, विपक्षी पार्टियों की रैलियां और छात्र आंदोलन सबने इस मैदान को बिहार की राजनीति का केंद्रीय मंच बना दिया। यही वह दौर था जिसने गांधी मैदान को भीड़ और बदलाव की राजनीति का प्रतीक बना दिया।
1990 गांधी मैदान में पहली बार किसी मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह बंगला या सरकारी भवन के भीतर न होकर खुले मैदान में हुआ। लालू प्रसाद यादव की पहली शपथ के साथ गांधी मैदान एक बार फिर सुर्खियों में आया। भीड़ इतनी बड़ी थी कि यह आयोजन सिर्फ इस मैदान जैसे विशाल स्थल पर ही संभव था। इस घटना के बाद गांधी मैदान सिर्फ रैली स्थल नहीं रहा, बल्कि सत्ता परिवर्तन का मंच भी बन गया।
समय के साथ-साथ तकनीक और सुरक्षा के तरीके बदले और गांधी मैदान ने भी खुद को नए दौर के अनुसार ढाला गया। बड़े आयोजनों, राजनीतिक सभाओं और VVIP मूवमेंट्स को देखते हुए इसे हाई-सिक्योरिटी जोन में बदल दिया गया। आज यहां बड़े आयोजन के दौरान ड्रोन कैमरे, 360-डिग्री मॉनिटरिंग, डिजिटल कंट्रोल रूम और कड़ी सुरक्षा व्यवस्थाएं लगती हैं। मैदान का ढांचा वही है, लेकिन इसका इस्तेमाल अब हाईटेक तरीके से किया जाता है।
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