
पटनाः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तारीखों के ऐलान के साथ ही सूबे की सियासत में जातीय समीकरणों का तापमान तेजी से बढ़ गया है। चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि दो चरणों में मतदान 6 और 11 नवंबर को होगा, जबकि मतगणना 14 नवंबर को की जाएगी। अब सवाल यह नहीं कि कौन पार्टी किससे गठबंधन करेगी, सवाल यह है कि कौन साधेगा बिहार का जातीय गणित, जो हर बार की तरह इस बार भी सत्ता तक पहुंचने की चाबी बनने वाला है।
बिहार की राजनीति जाति आधारित सामाजिक समीकरणों के बिना अधूरी मानी जाती है। यहां सिर्फ विकास या मुद्दे नहीं चलते, जातीय पहचान और सामाजिक प्रतिनिधित्व ही असली वोट का आधार तय करते हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में यह साफ दिखा था कि किसी भी दल को बहुमत हासिल करने के लिए एक जाति या समुदाय के भरोसे चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए हर दल की पूरी रणनीति इस बार भी किसे जोड़ें, किसे न खोएं वाले फार्मूले पर टिकी है।
बिहार में यादवों की आबादी करीब 14.3% है और ये दशकों से राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सबसे वफादार वोटर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव ने इस समुदाय को राजनीतिक शक्ति दी, और अब उनके बेटे तेजस्वी यादव उसी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यादव वोट सिर्फ RJD को ही नहीं, बल्कि महागठबंधन के सहयोगियों को भी आसानी से ट्रांसफर हो जाता है। जब इसमें करीब 17.7% मुस्लिम वोट जुड़ जाते हैं, तो बनता है वो “M-Y समीकरण” जिसने लंबे समय तक बिहार की सत्ता RJD के हाथों में रखी। 2025 में भी यही गठजोड़ महागठबंधन का सबसे मजबूत वोट बैंक है।
ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ जातियां बिहार की कुल आबादी का लगभग 15.5% हिस्सा हैं। यह समूह आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से प्रभावशाली रहा है। लालू राज के दौरान जब पिछड़ी जातियों की राजनीति हावी हुई, तब सवर्णों ने कांग्रेस से दूरी बनाकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) का दामन थाम लिया। आज भी BJP का कोर वोट बैंक सवर्ण समाज ही है। भले ही इनकी संख्या यादवों या मुस्लिमों से कम हो, लेकिन यह समुदाय संगठित, मुखर और निर्णायक है, खासकर शहरी इलाकों और उन सीटों पर जहां मुकाबला कांटे का होता है।
कुर्मी और कुशवाहा जातियां मिलकर बिहार की लगभग 7.1% आबादी बनाती हैं। नीतीश कुमार ने इस सामाजिक गठजोड़ को मजबूत कर JDU की नींव रखी थी। कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश ने कुशवाहा नेताओं (जैसे उपेंद्र कुशवाहा) के साथ मिलकर इस गठजोड़ को ‘लव-कुश समीकरण’ का नाम दिया था। कई वर्षों तक यह फार्मूला JDU की सत्ता की गारंटी बना रहा। हालांकि अब सम्राट चौधरी (कुशवाहा) के डिप्टी सीएम बनने से यह समीकरण बीजेपी की तरफ भी झुकता दिख रहा है।
दलित वोटों में पासवान और दुसाध समुदाय की पकड़ सबसे मजबूत है। यह समूह कुल आबादी का लगभग 5% हिस्सा है और लंबे समय तक रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) का आधार रहा। 2020 में चिराग पासवान ने अकेले चुनाव लड़कर JDU को भारी नुकसान पहुंचाया था, जिससे यह साबित हुआ कि LJP का वोट बैंक अभी भी निर्णायक है।
मुसहर समुदाय (लगभग 3.1%) और रविदास/चमार समुदाय (5%) बिहार की सबसे गरीब और हाशिए पर रहने वाली जातियों में गिने जाते हैं। इनका बड़ा हिस्सा जीतन राम मांझी की पार्टी HAM के साथ रहता है। वहीं, CPI-ML और वामपंथी दलों का प्रभाव भी इन जातियों में कुछ इलाकों में बना हुआ है। महागठबंधन के लिए इनका वोट बनाए रखना उतना ही जरूरी है जितना M-Y समीकरण को संभालना।
बिहार की 13% आबादी वाला वैश्य समुदाय (जिसमें तेली और कानू जैसी EBC उपजातियां शामिल हैं) पारंपरिक रूप से BJP के साथ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के “अति पिछड़ा” कार्ड और आर्थिक सशक्तिकरण की राजनीति ने इस समुदाय को NDA के और करीब किया है। शहरी सीटों पर ये वोट निर्णायक साबित होते हैं, खासकर पटना, गया, भागलपुर और मुजफ्फरपुर जैसे इलाकों में।
पिछले चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने सीमांचल क्षेत्र में पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। लेकिन 2025 में यह दोहराना मुश्किल लग रहा है क्योंकि RJD इस बार मुस्लिम वोटों के बिखराव को रोकने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। अगर सीमांचल में मुस्लिम वोट एकजुट रहे, तो महागठबंधन को बड़ा फायदा मिल सकता है।
बिहार चुनाव 2025 जातीय गणित का इम्तिहान जरूर है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बिना सामाजिक जोड़-तोड़ के कोई भी पार्टी सत्ता के द्वार तक नहीं पहुँच सकती। RJD अपने M-Y समीकरण पर भरोसा कर रही है, NDA सवर्ण और EBC पर दांव खेल रहा है, तो JDU और HAM जैसे दल अपने क्षेत्रीय जातीय नेटवर्क को बनाए रखने की कोशिश में हैं।
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