छोटानागपुर में खत्म हो गयी सदियों से चली आ रही ये परम्परा, पहले लोग करते थे बेसब्री से इंतजार

झारखंड के खूंटी जिले में 4-5 साल पहले माघ मेला लगता था। वर्तमान में बढती आधुनिकता की वजह से मेले का अस्तित्व खत्म हो चुका है। मेले से लोग अपनी साल भर की जरुरतों का सामान खरीदते थे। दुकानदारों को व्यापार चलता था और सरकार को राजस्व भी मिलता था।

खूंटी। लगभग चार-पांच साल पहले झारखंड के खूंटी जिले में तमाम स्थानों पर माघ मेला लगता था। वर्तमान में बढती आधुनिकता की वजह से मेले का अस्तित्व खत्म हो चुका है। मेले से लोग अपनी साल भर की जरुरतों का सामान खरीदते थे। दुकानदारों को व्यापार चलता था और सरकार को राजस्व भी मिलता था। मेले के जरिए वैवाहिक रिश्ते भी बनते थे। यह परम्परा छोटानागपुर में सदियों से चल रही थी। पहले लोग इसी मेले का बेसब्री से इंतजार करते थे।

अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग दिन लगता था मेला

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माघ महीने से शुरु होकर फाल्गुन तक चलने वाला यह मेला अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग दिनों में लगता था। किन्हीं जगहों पर यह मेला एक हफ्ते तक चलता था तो कहीं तीन से चार दिन तक। खूंटी, तोरपा, मुरहू, जरियागढ, डोड़मा, तपकारा, कामडारा, सिसई, सिमडेगा, कर्रा आदि जगहों पर यह मेला सप्ताह भर तक के लिए लगता था। आज भी उन जगहों को मेला टांड कहते हैं, जिन जगहों पर मेला लगता था।

राजस्व की भी होती थी वसूली

जिले के संबंधित अंचल कार्यालय से माघ मेले के जरिए राजस्व की वसूली भी होती थी। इसके लिए बोली भी लगाई जाती थी। सिमडेगा के मेले को गांधी मेला के नाम से पुकारा जाता था। गणतंत्र दिवस यानि 26 जनवरी के दिन उसकी शुरुआत हुई थी। यह मेला स्थानीय लोगों के लिए भी लाभप्रद होता था। स्थानीय लोगों को इससे रोजगार तो मिलता ही था। साथ ही सरकार को राजस्व की प्राप्ति भी होती थी।

मेला लगने वाली जगहों पर अतिक्रमण

पर समय के साथ माघ मेला लगने वाली जगहों पर अतिक्रमण हो गया या भूमि स्वामियों ने उन जगहों को बेच दिया। इस वजह से ज्यादातर जगहों पर मेला लगना बंद हो गया।स्थानीय निवासी बताते हैं कि लगभग वर्ष 2017 में खूंटी में अंतिम बार माघ मेला लगा था। देखा जाए तो मुरहू व हास्सा में भी उसके बाद मेला नहीं लगा।

पहले बर्तन खरीदने जाना पड़ता था रांची

स्थानीय निवासी बताते हैं कि पहले के समय में वह लोग मेले में पुराने बर्तनों को बदलकर नये बर्तन या उसके बदले कुछ सामान खरीदते थे। उस समय में बर्तन लेने के लिए रांची जाना पड़ता था। मेले मे तेल, मसाले के लिए कृषि से जुड़े उपकरणों की भी खरीददारी हुआ करती थी। दुकानदारों को इस मेले का बेसब्री से इंतजार होता था।

आदिवासियों व मूलवासियों की सांस्कृतिक परम्परा की थी पहचान

माघ जतरा राज्य के आदिवासियों और मूलवासियों की सांस्कृतिक परंपरा की पहचान थी। इसी बहाने स्थानीय आदिवासी व मूलवासी लोग अपने लड़के या लड़की के रिश्तों की बात करने भी आते थे। मेले के अवसर पर युवक व युवती एक दूसरे को देखकर पसंद करते थे। मेहमान नवाजी का भी लोग भरपूर लुत्फ उठाते थे। आलम यह होता था कि जिस इलाके में माघ मेला लगता था, उस इलाके के पांच-सात किलोमीटर के गांवों के घरों में मेहमान पहुंचते थे, जिनका मकसद मेला देखना होता था। उस समय गांवों में शायद ही ऐसे कोई घर मिलते थे, जिन घरों में मेला देखने के मकसद से मेहमान न आए हों।

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