झारखंड के लोहरदगा जिले के बरही चटकपुर गांव में होली पर आए दामादों से चुहलबाजी के रूप में ढेला मार होली शुरु हुई थी, दामादों को ग्रामीण खंभा उखाड़ने के लिए कहते थे और मजाक के रूप में उन पर ढेला फेंका जाता था।
लोहरदगा। झारखंड के लोहरदगा जिले के बरही चटकपुर गांव में होली पर आए दामादों से चुहलबाजी के रूप में ढेला मार होली शुरु हुई थी, दामादों को ग्रामीण खंभा उखाड़ने के लिए कहते थे और मजाक के रूप में उन पर ढेला फेंका जाता था। बदलते समय के साथ इसका भी स्वरूप बदला और इसमें गांव के लोग शामिल होने लगे।
सिर्फ ग्रामीणों को ही है शामिल होने की इजाजत
होली का यह पर्व देखने के लिए आसपास के जिलों से भी बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं, पर इसमें सिर्फ गांव के निवासियों को ही शामिल होने की इजाजत होती है। खास बात यह है कि इस परम्परा निभाने की वजह कोई रंजिश नहीं है, बल्कि दिलचस्प वजह है।
सैकड़ों वर्षों से निभाई जा रही है ये परम्परा
सैकड़ों वर्षों से चल रही परम्परा के अनुसार, गांव के पुजारी होलिका दहन के दिन पूजा के बाद मैदान में खंभा गाड़ देते हैं। अगले दिन उस खंभे को उखाड़ने और ढेला मरने के खेल में ग्रामीण इकट्ठा होते हैं। एक तरफ खंभे को छूने-उखाड़ने की होड़ होती है, दूसरी ओर उन पर मिटटी के ढेले बरसाए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि ढेलों से चोट खाने का डर पीछे छोड़कर जो लोग खूंटा या खंभा उखाड़ने आगे बढते हैं, उन्हें सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। माना जाता है कि ऐसे लोग सत्य के मार्ग पर चलने वाले होते हैं।
भाईचारा निभाते हुए खेली जाती है ढेला मार होली
ग्रामीणों के मुताबिक, ढेला मार होली से आज तक कोई भी व्यक्ति गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ है। ध्यान देने की बात यह है कि इस खेल में गांव के मुस्लिम भी शामिल होते हैं। इस परम्परा का निर्वहन भाईचारे के साथ किया जाता है। ग्रामीण भाईचारे का निर्वहन करते हुए यह परम्परा निभाते हैं। अब इस परम्परा की चर्चा दूर दराज तक होने लगी है। सोशल मीडिया के दौर में होली खेलने की इस परम्परा को देश के हर हिस्से में जाना जाने लगा है।