
प्रयागराज | महाकुंभ 2025 में कई साधु-संत आए हैं। हर किसी की कहानी और अध्यात्म से जुड़ने का किस्सा अलग है। ऐसे में नागा साधुओं की कहानी दिल को छू लेगी, जिनकी ज़िन्दगी में बहुत कठिनाइयाँ आईं। इस बार के महाकुंभ में पहुंचने वाले नागा साधु विक्रमानंद सरस्वती की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जो सुनकर हर किसी का दिल पिघल जाएगा।
विक्रमानंद सरस्वती, जिनका असली नाम विक्रम सिंह ठाकुर था, एक क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे। उनके पिता गांव के सरपंच और जमींदार थे, और मां एक कुशल गृहिणी थीं। विक्रमानंद का मन बचपन से ही वैराग्य की ओर था। मात्र आठ साल की उम्र में वह गांव के बाहर एक कुटिया में रहने लगे। लेकिन इस निर्णय ने उनके परिवार के जीवन में तहलका मचा दिया।
विक्रमानंद बताते हैं कि आठवीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद उनका मन वैराग्य की ओर बढ़ने लगा। वे गांव के बाग में अपनी कुटिया में रहने लगे, लेकिन उनके पिता को यह अस्वीकार था। उन्हें लगा कि उनका बेटा समाज में बेइज्जती कर रहा है। आखिरकार उन्होंने विक्रमानंद की कुटिया को बाग से हटवा दिया और घर में वापस बुला लिया।
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इसके बाद विक्रमानंद के घर में शादी की तैयारी शुरू हो गई, लेकिन विक्रमानंद ने शादी से मना कर दिया। इस मना करने पर उनके मां-बाप ने गुस्से में आकर जहर खा लिया और कहा, "तू शादी नहीं करेगा तो हम अपनी जान दे देंगे।" इस घटना के बाद पुलिस आई और विक्रमानंद को थाने उठा ले गई। तीन दिन तक थाने के लॉकअप में रहने के बाद विक्रमानंद को थाने से छोड़ दिया गया।
विक्रमानंद के परिवार, पुलिस और समाज के दबाव में आकर विक्रमानंद ने शादी कर ली, लेकिन शादी के डेढ़ साल बाद ही उनकी पत्नी टीबी के कारण चल बसी। इस दुखद घटना के बाद उन्होंने समाज से मुंह मोड़ लिया और सन्यास की राह पकड़ ली।
विक्रमानंद ने आठ साल तक श्मशान घाट में धूनी रमाई, फिर कबीरपंथी हो गए। 12 साल पहले वह जूना अखाड़े से जुड़ गए और अब वे महाकुंभ में शिरकत करने पहुंचे हैं। उनका मानना है कि इस बार के कुंभ में प्रशासन की कार्यशैली पर कई सवाल उठते हैं, खासकर संत महात्माओं की उपेक्षा करना निंदनीय है। योगी महराज के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उनके मातहत संत महात्माओं की उपेक्षा करना बेहद गलत है।
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