सर सैयद अहमद खान की आज पुण्यतिथि (Sir Syed Ahmed Khan Death Anniversary) है। उनका पूरा ध्यान मुस्लिम समाज (Muslim Community) में बदलाव लाना था और यह कोशिश शिक्षा के जरिए वह पूरी करना चाहते थे। इसके लिए तमाम प्रयास किए, तब भले नहीं, मगर आज उनके प्रयास सफल दिख रहे हैं।
नई दिल्ली। आज ऐसे मुस्लिम नेता की पुण्यतिथि (Death Anniversary) है, जो करीब दो सौ साल पहले पैदा हुए थे। उनका नाम था सर सैयद अहमद खान (Sir Syed Ahmed Khan)। हालांकि, वे उस समय में भी अगले 200 साल की बात करते थे। तब बहुत से लोग उनका विरोध भी करते थे। वे कहते थे कि इस आदमी के सिर में अंग्रेजी घुस गई है। यह अंग्रेज और अंग्रेजियत का मारा हुआ है। कट्टर इस्लामिक विचारधारा वाले लोग कहते थे कि यह शख्स इस्लाम को डुबो देगा। सर सैयद अहमद खान का जन्म 17 अक्टूबर 1817 को हुआ था, जबकि उनकी मौत 27 मार्च 1898 में हुई।
सर सैयद अहमद खान का औरतों को लेकर भी विचार अलग था और इस बारे में इन पर सवाल भी उठाए गए। 1857 के बाद भारत का माहौल बेहद खराब होता जा रहा था। अंग्रेज ने हिंदू और मुस्लिम को बांटने की रणनीति अपना ली थी। अलग-अलग जगह सिर्फ मुसलमानों को मारा जाने लगा। एक दिन में लगभग 22 हजार मुसलमानों को फांसी दी गई। बाद में धीरे-धीरे रणनीति में बदलाव किया गया और इनकी तरफदारी शुरू कर दी गई।
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मुसलमानों के साथ नाइंसाफी करते थे अंग्रेज, कभी बढ़ने नहीं दिया
हालांकि, अंग्रेजों ने मुसलमानों को कभी आधुनिक परिवेश में लाने के लिए काम नहीं किया। वे उनके पुराने नियमों-कानूनों पर ही जीने के लिए मजबूर करते। कोई सुविधा नहीं देते। बहरहाल, सैयद अहमद खान ऐसे समय ही पढ़-लिखकर आगे बढ़े। शिक्षा मिली तो दिमाग खुला। उन्होंने मुस्लिम समुदाय की बेहतरी के लिए काम करना शुरू किया, मगर अंग्रेज और मुस्लिम कट्टरपंथ दोनों ही इनका विरोध करते थे।
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सामाजिक सुधार लाने की कोशिश थी मगर एक झटके में नहीं
सैयद अहमद खान ने खास योजना के तहत वैज्ञानिक तौर-तरीकों के साथ सामाजिक शिक्षण संस्थान चलाना शुरू कर दिया। वैज्ञानिक तर्क के साथ परंपराओं का अनुवाद किया। पत्रिकाओं में चीजें छपने लगीं। सामाजिक सुधार पर बात होने लगी। हालांकि, ऐसी योजना भी नहीं थी कि सब कुछ एक बार में ही बदल दिया जाए। इस प्लेटफॉर्म पर काम हो रहा था परंपरा और आधुनिकता दोनों को साथ लेकर चला जाए और धीरे-धीरे पुरानी विचारधारा से बाहर निकला जाए।
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किसी से लड़ना नहीं चाहते थे, प्यार से कहते थे अपनी बात
उनका स्पष्ट मानना था कि इस्लाम का चेहरा दूसरों को नहीं दिखाया जाए। इसकी जगह अपना चेहरा दिखाएं, वह भी इस्लाम के दिए चरित्र, ज्ञान, सहिष्णुता के साथ। उन्होंने यह भी कहा कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है, जो विज्ञान और वैज्ञानिकता के विरुद्ध जाता है। सैयद अहमद खान अपनी बात प्यार से कहना जानते थे। वे किसी से लड़ना नहीं चाहते थे। उनका सबसे बड़ा योगदान था अलीगढ़ आंदोलन।
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हर चार साल पर स्कूल खोले और उन्हें इंग्लैंड के शैक्षणिक परिवेश के मुताबिक बदलने लगे
सैयद साहब ने 1859 में उन्होंने मुरादाबाद में गुलशन स्कूल खोला था। चार साल बाद 1863 में गाजीपुर में विक्टोरिया स्कूल खोला। फिर चार साल बाद 1867 में मोहम्डन एंग्लो ओरियंटल स्कूल खोला। तभी इंग्लैंड चले गए। वहां के शैक्षणिक परिवेश से काफी प्रभावित थे। वहां से लौटे तो अपने सभी स्कूलों को भी वैसा बनाने की कोशिश में जुट गए। यह स्कूल करीब दस से बारह साल में यानी 1875 तक कॉलेज बने और सैयद साहब की मौत के बाद 1920 में विश्वविद्यालय बना।