बर्थडे स्पेशल: अखिलेश यादव की राजनीति विरासत या कांटों का ताज, इन 5 प्वाइंट्स में समझिए पूरी कहानी

अखिलेश यादव 1 जुलाई को अपना जन्मदिवस मना रहे हैं। उनका राजनीतिक सफर शुरुआत से ही आसान नहीं रहा और इन दिनों मिल रही हार के बाद लगातार वह आलोचनाओं का शिकार हो रहे हैं। 

लखनऊ: समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव 1 जुलाई को अपना जन्मदिवस मना रहे हैं। यह यूपी की राजनीति में उनकी सक्रियता का 23वां साल है। 1999 में वह पहली बार सांसद चुने गए थे और यहां से उनके सफर की शुरुआत हुई थी। इसके बाद उन्होंने देश के सबसे बड़े सूबे की कमान बतौर मुख्यमंत्री भी संभाली। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के बेटे होने के नाते वह उनकी राजनीतिक विरासत को संभाल रहे हैं। हालांकि उनके लिए इस राजनीतिक विरासत को संभालना किसी कांटों के ताज को संभालने से कम नहीं हैं। बीते कुछ चुनावों में यूपी में सपा को जो परिणाम हासिल हुआ है उसके बाद लगातार अखिलेश यादव आलोचना का शिकार हो रहे हैं। विपक्षी ही नहीं सहयोगी दल और परिवार के सदस्य तक उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं। हालांकि इसके बावजूद अखिलेश कमजोर पड़ते दिखाई नहीं पड़ते। 

मुख्यमंत्री बनने के बाद से गर्दिश में हैं सितारे
अपने राजनीतिक सफर के दौरान अखिलेश यादव को उस दौरान जबरदस्त सफलता हाथ लगी जब साल 2012 में यूपी में सपा ने जीत का परचम फहराया। 15 मार्च 2012 को अखिलेश ने 38 साल की उम्र में राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली और पांच साल तक सीएम भी रहे। हालांकि इसके बाद उनके जीवन में उतार का सिलसिला लगातार जारी है। इस बीच समाजवादी पार्टी के कई दिग्गज नेता और संस्थापक सदस्यों में शामिल नेता भी पार्टी से किनारा कर अखिलेश को जमकर कोसा। अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं कि समाजवादी पार्टी बदल चुकी है। अखिलेश की नई सपा मुलायम सिंह यादव की सपा से बिल्कुल ही अलग है।

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गठबंधन के नेता भी ज्यादा दिन तक नहीं रहते हैं साथ 
यूपी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान से अब तक यानी की 2016 से लेकर 2022 तक के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अखिलेश ने कई राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किया। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि जीत न हासिल करने के साथ ही यह गठबंधन ज्यादा दिनों तक टिके न रह सके। गठबंधन से अलग होने के साथ ही सहयोगी दलों के नेताओं ने अखिलेश पर जमकर निशाना साधा। अखिलेश यादव ने पहले कांग्रेस फिर बसपा के साथ गठबंधन किया जो कि चुनाव के नतीजे आने के साथ ही खत्म हो गया। कांग्रेस के नेताओं और मायावती ने भी अखिलेश को ही हार के लिए जिम्मेदार बताया। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कई छोटे दलों को साथ लेकर चुनाव लड़ा। हालांकि अपेक्षित परिणाम न हासिल होने के बाद सहयोगी दल लगातार उन पर हमलावर हैं। इस कड़ी में ओम प्रकाश राजभर अक्सर आरोप लगाते रहते हैं कि अखिलेश एसी कमरों से बाहर नहीं निकल पा रहें। इसी के चलते विरासत में मिली राजनीति हासिएं पर जा रही है। 

अखिलेश ने बदली सपा को लेकर लोगों की सोच 
भले ही अखिलेश यादव को बीते चुनावों में अपेक्षित परिणाम न हासिल हुआ हो लेकिन उन्होंने लोगों के मन में सपा को लेकर चल रही सोच को बदल दिया है। पूर्व में सपा पर परिवारवाद का आरोप जमकर लगता था। लेकिन बीते कुछ चुनावों में अखिलेश ने टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक परिवार को लोगों को पार्टी से दूर रखा। जिससे कहीं न कहीं आम कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ा। इसी के साथ पार्टी में नए चेहरों को जगह भी मिली। 

मुलायम की तैयार सीटों पर भी नहीं मिल रही जीत
यूपी में कुछ सीटें मुलायम सिंह ने खुद अपने और परिवार के लिए खड़ी की थी। इन सीटों के सहारे ही सपा को प्रदेश में स्थापित किया गया था। इसमें कन्नौज, इटावा, फिरोजाबाद, संभल और मैनपुरी का नाम शामिल है जो कि सपा का गढ़ कहा जाता है। लेकिन इन सीटों पर भी पार्टी को मिल रहा परिणाम अखिलेश के लिए कड़ी चुनौती साबित हो रहा है। 

परिवार की अंदरूनी कलह बन रही हार की जिम्मेदार
अखिलेश जहां एक ओर प्रदेश के लोगों में पार्टी को लेकर सोच बदल रहे हैं तो इसका विपरीत प्रभाव भी देखने को मिल रहा है। पार्टी की अंदरूनी कलह ही पार्टी की हार के लिए असल जिम्मेदार बताई जा रही है। इसी के चलते सपा एक-एक कर अपनी मजबूत सीटों को भी खो रही है और उसके भविष्य को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। यूपी की राजनीति बीजेपी के बाद भले ही आज भी दूसरे नंबर पर सपा का नाम आता हो लेकिन उसके सत्ता में वापसी का सफर दूर दिखाई पड़ता है। 

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