इस मंदिर में पर बरपा था औरंगजेब का कहर, बचने के लिए पुजारी ने निकाला था ये रास्ता

नवरात्रि के पावन अवसर पर पूरे देश में मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ है। नवरात्रि का पर्व हिन्दुओं की आस्था में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यूपी के प्रतापगढ़ में एक अष्टभुजा देवी का मंदिर है जहां नवरात्रि में भक्तों की भारी भीड़ होती है।

प्रतापगढ़ (Uttar Pradesh). नवरात्रि का पर्व हिन्दुओं की आस्था में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यूपी के प्रतापगढ़ में एक अष्टभुजा देवी का मंदिर है, जहां नवरात्रि में भक्तों की भारी भीड़ जुटती है। मान्यता ऐसी है कि यहां मांगी गयी हर मुराद पूरी होती है। मंदिर में बिना सिर वाली मूर्तियों की पूजा होती है। कहा जाता है कि मुगल शासनकाल में जब हिन्दू मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, उसी समय इस मंदिर में स्थापित मूर्तियों का सिर काट दिया गया था। 11वीं शताब्दी के इस मंदिर के पुजारी राम सजीवन गिरी से hindi.asianetnews.com ने बात की। उन्होंने मंदिर के इतिहास के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां शेयर की। 

जानें क्या है इस मंदिर का इतिहास... 
बताया जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। गजेडियर में दर्ज इस मंदिर के इतिहास के बारे में कहा गया है कि इसका निर्माण सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा ने कराया था। इसकी दीवारों व बनावट में की गई नक्काशियां व विभिन्न प्रकार के आकृतियां देखने के बाद इतिहासकार व पुरातत्वविद इसे 11वीं शताब्दी का बना हुआ मानते हैं। इसके गेट में बनी आकृतियां मध्यप्रदेश के खजुराहो मंदिर से काफी मिलती हैं। मंदिर में आठ हांथों वाली अष्टभुजा देवी की मूर्ति है। पहले यहां अष्टभुजा देवी की अष्टधातु की प्राचीन मूर्ति भी थी। लेकिन करीब 15 साल पहले वह चोरी हो गई, जिसके बाद सामूहिक सहयोग से ग्रामीणों ने यहां अष्टभुजा देवी की पत्थर की मूर्ति स्थापित करा दी। 

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औरंगजेब ने कटवाए थे मूर्तियों के सिर 
पुजारी रामसजीवन गिरी बताते हैं, मुगल शासक औरंगजेब ने 1699 ई. में हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था। उस समय इस मंदिर को बचाने के लिए तत्कालीन पुजारी ने मुख्य मार्ग मस्जिद के आकार में बनवा दिया था। ताकि भ्रम पैदा हो और मंदिर टूटने से बच जाए। हुआ भी कुछ ऐसा। यहां से गुजर रही मुगल सेना तो निकल गई, लेकिन उसके एक सेनापति की नजर इस मंदिर के अंदर टंगे घंटे पर पड़ गई। जिसके बाद उसने मंदिर में जाकर सभी मूर्तियों के सिर काट दिए। आज भी वो मूर्तियां इस मंदिर के अन्दर स्थापित हैं।

कोई नहीं पढ़ सका है मंदिर में लिखा रहस्य 
इस मंदिर के मेन गेट पर एक विशेष भाषा में कुछ लिखा गया है। जिसको पढ़ने के लिए आज तक कई पुरातत्वविद व इतिहासकार मंदिर में आ चुके है। लेकिन आज तक उन्हें विशेष भाषा में लिखी गई लिखावट को पढ़ने में सफलता नहीं मिल सकी है। कुछ इतिहासकार इसे ब्राम्ही लिपि बताते है तो कुछ उससे भी पुरानी भाषा, लेकिन इस भाषा को अभी तक कोई भी पढ़ नहीं सका है। 

सिंधुघाटी सभ्यता में मिली कलाकृतियों से मिलती है मंदिर की नक्काशी 
मंदिर की प्राचीनता का प्रमाण इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मंदिर की दीवारों में की गई नक्काशियां सिन्धुघाटी सभ्यता में मिली पत्थर की मूर्तियों व नक्काशियों से बिलकुल मिलती है। 2007 में दिल्ली से आये कुछ पुरातत्वविदों ने इसे 11वीं शताब्दी का मंदिर बताया था। मंदिर की सबसे विशेष बात यह है कि इसके मुख्य मार्ग के बाद प्रांगण में मां का मंदिर व मूर्ति स्थापित है। इतिहास में दर्ज उल्लेखों के अनुसार ऐसे मंदिर सिन्धु घाटी सभ्यता में होते थे। 

गांव में प्रशासनिक अधिकारियों की है भरमार 
प्रतापगढ़ जनपद के जिस गाँव गोंड़े में यह मंदिर स्थित है उस गाँव में दो दर्जन से अधिक प्रशासनिक अधिकारी हैं। गाँव में सिविल सर्विस से लेकर न्यायिक सेवा वाले लोगों की लम्बी लिस्ट है। क्षेत्र में इस बात की भी चर्चा है कि यह सब इस सिद्ध पीठ के आशीर्वाद से हुआ है। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहाँ मन माँगी मुराद पूरी होती है।  दूर दूर से लोग यहाँ अपनी मुरादें लेकर आते हैं और मुरादें पूरी होने के बाद माँ के मंदिर में चढावा चढाते हैं।

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