उत्तराखंड के कई गांवों से हो रहा पलायन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौती बनता दिखाई पड़ रहा है। इन जगहों से पलायन रोकना हमेशा से ही राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता रही है। लिहाजा इसको लेकर आयोग का भी गठन किया गया था। इसी कड़ी में अब कई रिपोर्टस मांगी गई हैं।
देहरादून: उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में हो रहे पलायन को रोकना हमेशा से राज्य सरकार की प्राथमिकता रही है। अगस्त 2017 में गठित उत्तराखंड ग्राम्य विकास और पलायन आयोज ने अब अपनी संस्तुतियों को लेकर संबंधित विभागों की ओर से किए गए कार्यों की समीक्षा शुरू कर दी है। आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. एसएस नेगी ने मामले में संस्तुतियों पर अब तक की हुई प्रगति की जिलेवार रिपोर्ट मांगी है। दरअसल इन रिपोर्ट के जरिए सरकार यह देखना चाह रही है कि आयोग बनने के बाद अब तक पलायन रोकने को लेकर कितना काम हुआ है। इसी के साथ यह कितना कामयाब हुआ है।
राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है प्रश्न
बीते दिनों खाली हो रहे गांवों के आबाद होने की उम्मीद उस दौरान जगी जब कोविड काल में कई प्रवासी घर लौटे। हालांकि अब देखना होगा कि उन प्रवासियों को गांव में ही रोजगार देकर उन्हें रोकने की सरकारी मुहिम कितना कामयाब रही? इसी के साथ देखना यह भी जरूरी है कि जिस आशा के साथ पलायन आयोग का गठन किया गया था वह पांच सालों में कितना सार्थक साबित हुआ। इस पूरे मामले में पर गंभीरता बरतने को लेकर जरूरत इस वजह से भी है क्योकि राज्य के सीमांत क्षेत्र में हो रहा पलायन मात्र क्षेत्रीय समस्या न होकर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ भी प्रश्न है।
कई गांव पूरी तरह से हुई जनविहीन
ज्ञात हो कि आयोग ने इस पूरे मामले पर वर्ष 2018 में राज्य के 16 हजार से अधिक गांवों का सर्वेक्षण कर रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी थी। जिसमें बताया गया था कि 3946 गांवों के 118981 व्यक्तियों ने स्थायी रूप से पलायन किया है। जबकि 6338 गांवों के 383626 लोगों ने अस्थायी रूप से गांव को छोड़ दिया है। इन सब के बीच तकरीबन 1702 गांव तो ऐसे हो गए है जो पूरी तरह से ही जनविहीन हो गए। वहीं सैकड़ों गावों में सिर्फ गिनती की आबादी बची हुई रह गई है।
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