तो वक्त ने ली करवट, अब आएगा रामराज्यः भारत की राजनीति में आखिर राम मंदिर आंदोलन ने क्या बदला?

पिछले तीन दशक के दौरान राजनीति में हिन्दुत्व की स्वीकार्यता बढ़ी और कई स्थापित धारणाएं बदली। और आज इसे महसूस किया जा सकता है कि कल तक मंदिर आंदोलन का विरोध करने वाले आज उसे क्लेम करने के लिए ललचाते दिख रहे हैं। 
 

अयोध्या। आखिरकार 5 अगस्त 2020 का दिन न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर के हिंदुओं के लिए एक ऐसी तारीख के रूप में दर्ज हो गई जिसका 500 सालों का अतीत अपमान, खूनी विवाद, दंगों, हजारों मौतों और लाखों लोगों के बलिदान-संकल्प से भरा पड़ा है। भारत में सोमनाथ मंदिर के 'पुनरोद्धार' के बाद अयोध्या में रामलला के मंदिर निर्माण के शिलान्यास तक पिछले एक हजार साल के इतिहास में हिंदू समाज के लिए सबसे भावुक और गौरवशाली घटना है। सपनों के हकीकत में बदलने का क्षण। इतिहास खुद को इसी तरह की घटनाओं से दर्ज करता है जो शिलान्यास के रूप में दिखा। 

शांतिपूर्ण तरीके से आयोजित कारसेवा में 6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहने के बाद पिछले 3 दशक कई मायनों में निर्णायक साबित हुए हैं। राम मंदिर आंदोलन ने निर्माण तक लोगों के सोचने का ढंग लगभग पूरी तरह से बदल दिया है। राजनीति पर भी इसका असर पड़ा। राजनीति में हिन्दुत्व की स्वीकार्यता बढ़ी और कई स्थापित धारणाएं बदली। आज इसे महसूस किया जा सकता है कि कल तक मंदिर आंदोलन का विरोध करने वाले आज उसे "क्लेम" करने के लिए ललचाते दिख रहे हैं। 

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1947 में धार्मिक आधार पर बंटवारे और फिर आजाद भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और समाजवादी स्वरूप वाले संविधान की स्थापना के बाद एक लंबे वक्त तक राजनीति में हिन्दुत्व का कॉन्सेप्ट तो था मगर वह हिंदू महासभा, जनता पार्टी (छिटपुट मौजूदगी) में था जिसकी राजनीति को धार्मिक वजहों से मुख्यधारा में अपमान, अलगाववाद और तिरस्कार झेलते रहना पड़ा। ये वो दौर है जब हिन्दुत्व की राजनीति को समर्थन करना मतलब वक्त से पीछे चलना माना जाता था। यही वजह था कि आवाजें होने के बावजूद वो व्यापक और स्ट्रक्चर्ड नहीं था। उसकी स्वीकार्यता सीमित थी। 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को आजाद भारत में पहले दो दशक तक लगभग तिरस्कार झेलना पड़ा। बाद में 1970 तक संघ की स्वीकार्यता बढ़ गई, उसे समाज के एक बड़े तबके ने सम्मान तो बहुत दिया मगर राजनीतिक बदलाव के अधिकार नहीं दिए। फिर संघ के अलग-अलग संगठनों ने इस दिशा में काम किया। विहिप का उभार, 1984 में जनता पार्टी की टूट से बीजेपी की स्थापना के बाद राम मंदिर का एजेंडा पार्टी की राजनीति और संघ के सामाजिक मकसद का आधार बना। राम मंदिर ही वह आंदोलन है जिसने संघ के हिन्दुत्व की राजनीति को न सिर्फ मजबूत आधार दिया बल्कि वक्त के साथ उसे ज्यादा व्यापक और स्ट्रक्चर्ड बनाने में कामयाब हुआ। राम मंदिर आंदोलन के एक नतीजे पर पहुंचने की पूरी प्रक्रिया में बदलावों का पूरा इतिहास दर्ज होता गया है। 

स्थापना के बाद 1989 तक बीजेपी ने कांग्रेस, जनता दल, वाम दलों और दक्षिण के क्षेत्रीय विपक्षी दलों के बीच एक ऐसा मजबूत ट्राएंगल बनाया जिसे नजरअंदाज करना लगभग नामुमकीन हो गया। और इस बदलाव का पहला सबसे बड़ा पड़ाव पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में बीजेपी और वाम दलों के सहयोग से बनी केंद्र की सरकार थी जो भविष्य को भांप नहीं पाई और वक्त से पहले खत्म हो गई। इस दौर में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने देश के कोने-कोने में भविष्य के इतिहास की नींव रख दी। 

हिन्दुत्व की राजनीति से मजबूर हो गए थे राजीव गांधी 
1984 से 1989 का दौर राजनीति में हिंदू प्रतीकों की स्वीकार्यता का भी दौर है। आज की तारीख में बड़ी राजनीतिक जमीन खो चुकी कांग्रेस गांधी परिवार के नेतृत्व में जहां जाने की कोशिश में दिख रही है, ठीक तीन दशक पहले भी उसने राजीव गांधी के नेतृत्व में ऐसी ही कोशिश की थी। तब राजनीति में दो धाराएं मजबूती से खड़ी हो रही थीं। अयोध्या, काशी और मथुरा के रूप में एक राजनीति, राम मंदिर आंदोलन के बहाने हिन्दुत्व के पक्ष में मजबूत हो रही थी। तो जनता दल, वाम दल और क्षेत्रीय दल हिन्दुत्व के अंदर के जातीय संघर्ष को राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश में थे। उस दौर में राजनीतिक बदलाव इतनी तेजी से हुए कि कांग्रेस को मंदिर के ताले खुलवाने के बावजूद आगे "हिन्दुत्व" क्लेम करने का मौका ही नहीं मिल पाया। 

मंडल आयोग के बाद क्षेत्रीय दलों के उभार से घबरा गई कांग्रेस 
शाहबानो केस में भी पहले बहुत फारवर्ड नजर आ रही कांग्रेस को आखिर में अपना स्टैंड बदलना पड़ा। और ये दोनों बदलाव उन राजनीतिक ताकतों की लोकप्रियता की वजह से करने पड़े जो हिन्दुत्व के विरोध में उसके अंदर के जातीय संघर्ष को "दलित-पिछड़ा" राजनीति का सिद्धान्त दे रहे थे। साथ ही साथ मुसलमानों संग एक राजनीतिक गठजोड़ भी बना रहे थे। हालांकि इस गठजोड़ का बड़ा मकसद सत्ता के मुहाने तक पहुंचना था। यही वजह है कि मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के बावजूद वक्त के साथ इनका असर दरकता गया। हिन्दुत्व के जिस जातीय संघर्ष के कॉन्सेप्ट को राजनीतिक सिद्धान्त देने की कोशिश की गई थी वो परस्पर एक-दूसरे के खिलाफ मौकापरस्ती में सिमट गई। 

निजी महत्वाकांक्षाओं से कमजोर पड़ी राजनीति  
बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, यूपी में चंद्रशेखर, मुलायम सिंह यादव कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा, हेगड़े और ओडिशा में बीजू पटनायक अलग होकर क्षेत्रीय दल के रूप में खड़े हुए। दलित-पिछड़ा राजनीति की अगुवाई में टूट पर टूट हुई और आधा दर्जन से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की नींव पड़ी। क्षेत्रीय दलों के उतार-चढ़ाव वाले इस दौर में हिन्दुत्व की राजनीति "मजबूत" तो हो गई थी, मगर निर्णायक बनते-बनते रह गई। अगले 6 से 7 साल के दौरान पहले वीपी सिंह और फिर चंद्रशेखर की सरकार गिरने, बाद में मध्यावधि चुनाव और राजीव गांधी के निधन फिर पीवी नरसिंम्ह राव के नेतृत्व में कांग्रेस के "मौकापरस्त" उभार और आधा दर्जन से ज्यादा मजबूत क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी ने राममंदिर की राजनीति को सत्ता के मुहाने से बाहर ही रखा। 

राजनीति में अनटचेबल बीजेपी का दौर 
ये भी बहुत ही दिलचस्प है कि 1989 के दौर में बीजेपी की जो राजनीति स्वीकार्य थी और उसके सहयोग से घोषित सेकुलर पार्टियों ने केंद्र में सरकार बनाई वही बीजेपी 1995 तक उनके लिए अछूत हो गई। ये वह भी दौर है जब सेकुलर की परिभाषा, "अघोषित रूप से हिन्दुत्व प्रतीकों के विरोध के रूप में स्थापित होती दिखी।"  वो दौर भी है जब राम मंदिर आंदोलन के अदालती प्रक्रिया में फंसने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता की दहलीज तक पहुंचने के लिए बीजेपी ने अपनी रणनीति बदली। 

हिन्दुत्व की काट का हथियार ही बना बीजेपी का औजार 
बीजेपी ने सत्ता समीकरण में बाहर हुए क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों को साथ लेकर रणनीति बदली। पार्टी ने राम मंदिर को लेकर न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा जताती दिखी और काशी-मथुरा जैसे दावों पर पार्टी के स्वर नरम पड़े। सर्वमान्य एजेंडा पर राजग का गठन हुआ और पहली बार 13 दिन के लिए सहयोगी पार्टियों के साथ बीजेपी के हाथ में केंद्र की सत्ता आई। हालांकि बहुमत के अभाव में सरकार गिरी और बाद में इन्द्र कुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा के रूप में संयुक्त मोर्चा की दो सरकारें कांग्रेस के समर्थन से बनी और बुरे अंत का शिकार हुईं। राम मंदिर से हिन्दुत्व तक बीजेपी की नई रणनीति ने काम किया और मध्यावधि के चुनाव में राजग ने बहुमत के साथ सरकार बनाई। मगर जयललिता की वजह से सरकार को समय से पहले ही गिरना पड़ा। लेकिन इसके बाद राजग तीसरी बार बहुमत से सत्ता के मुहाने तक पहुंचा और कार्यकाल पूरा किया। ये वो दौर है जब जातीय और समाजवादी राजनीतिक आधार पर कभी बीजेपी का विरोध करने वाले क्षेत्रीय क्षत्रप बीजेपी के साथ रहे। इसी साथ ने हिन्दुत्व की राजनीति के विस्तार को अलग आयाम दिया। अब अछूत बीजेपी से होकर सत्ता तक एक रास्ता जाने लगा। 

 

सत्ता के बंटवारे का फॉर्मूला  
हालांकि 2002 में वाजपेयी की सरकार के दौरान विहिप ने मंदिर के लिए बड़ी कारसेवा की और गोधरा में कारसेवकों की ट्रेन जलने के बाद गुजरात में व्यापक हिंसा हुई। इस घटना ने कितना असर डाला यह तो नहीं मालूम, लेकिन आम चुनाव में राजग सत्ता में वापस नहीं लौटा। कांग्रेस ने पहली बार सत्ता के बंटवारे के फॉर्मूले पर पहली बार चुनाव चुनाव लड़ा और 10 साल तक केंद्र में काबिज रही। ये वो दौर भी है जब बीजेपी में दूसरी पंक्ति के फायर ब्रांड नेता हिन्दुत्व की राजनीति में विकास और गैर कांग्रेसमुक्त भारत का नारा लेकर आगे बढ़े। निश्चित ही 2013 में बीजेपी और राजग ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आम चुनाव में जाने का फैसला लिया। इसके बाद का सबकुछ इतिहास है। हालांकि बीजेपी ने राजग के एजेंडा पर ही चुनाव लड़ा, मगर अदालती प्रक्रिया के जरिए राम मंदिर आंदोलन के एक मुकाम पर पहुंचने का भरोसा दिलाया। 

मोदी मैजिक ने किया विकल्पहीन 
नरेंद्र मोदी हिन्दुत्व की राजनीति के सबसे बड़े चेहरे के रूप में सामने आए। भारत के चुनाव के इतिहास में नरेंद्र मोदी ने प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई। इसमें कोई शक नहीं कि 2014 और 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी को मिले प्रचंड बहुमत ने हिन्दुत्व के विरोध की बची-खुची आवाजों को या तो हाशिये पर डाल दिया या पूरी तरह से खामोश कर दिया। 2019 में राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आते-आते स्थापित चीजें ढहती जा रही हैं। यह उसी मोदी मैजिक का नतीजा है कि पिछले तीन दशक तक राम मंदिर आंदोलन का विरोध करने वाले आज या तो चुप हैं या राममंदिर और अयोध्या को अपनी-अपनी तरह से क्लेम कर रहे हैं। 

 

सॉफ्टकार्ड से क्रेडिट लेने की कोशिश 
पिछले तीन दशक में मंदिर के खिलाफ नजर आ रही कांग्रेस और उसके नेता अब मंदिर निर्माण का श्रेय लेने के लिए दावे कर रहे हैं। चुनाव से पहले राहुल गांधी की सॉफ्ट हिन्दुत्व की छवि स्थापित करने की कोशिश की गई मगर वो नाकाम साबित हुई। इसमें कई ऐसे हैं जो राममंदिर और हिन्दुत्व की राजनीति को लेकर बीजेपी का विरोध करते थे मगर आज राजग का हिस्सा हैं और भगवान राम से खुद को जोड़ रहे हैं। तमाम नेता जो हिंदू प्रतीकों की राजनीति का ठप्पा लगने से इतना डरते थे कि सार्वजनिक रूप से उसे जाहिर नहीं करते थे। मगर अब राजनीतिक फायदे के लिए पूजा पाठ और अनुष्ठान का प्रचार करते नजर आते हैं। और ये सारे बदलाव राजनीति में हिन्दुत्व की व्यापक स्वीकार्यता की वजह से माने जा सकते हैं। 

वाम दलों का सुर भी बदल गया है 
पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से मित्रता, कश्मीर में भारत की भूमिका, चीन के साथ रिश्तों पर वाम दलों का रवैया भी लगभग पूरी तरह से बदला-बदला नजर आ रहा है। राजनीति में राम मंदिर और हिन्दुत्व के आंदोलन की भूमिका अगले दो दशकों में और ज्यादा साफ नजर आएगी। 

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