काशी में देव दीपावली के मौके पर गंगा के तट पर दीपकों का जलाया जाएगा। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन अदृश्य रूप से देवता पृथ्वी पर आते है। इतना ही नहीं देव दीपावली के दिन दीपदान का भी खास महत्व है।
वाराणसी: उत्तर प्रदेश की विश्वनाथ नगरी काशी में होने वाली देव दीपावली को तैयारियां जोरो-शोरो से चल रही है। इस बार देव दीपावली पर काशी के अर्धचंद्राकार घाटों पर 10 लाख दीपक जलाए जाएंगे। इतना ही नहीं लेजर शो और ग्रीन आतिशबाजी से इस महोत्सव में चार चांद लगाने की पूरी कोशिश की जाएगी। बाबा की नगरी में मनाई जाने वाली देवताओं की इस दिवाली का सीधा नाता भगवान शंकर से जुड़ा है। वहीं धार्मिक मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान शंकर ने त्रिपुरा सुर नाम के राक्षस का वध किया था। जिसके बाद देवताओं ने दिवाली मनाई थी।
अदृश्य रूप से स्वर्ण लोक से पृथ्वी पर है आते
ज्योतिषाचार्यों का कहना है कि त्रिपुर नाम के दैत्य से सभी देवता परेशान था। राक्षस त्रिपुर के उत्पीड़न से परेशान देवताओं ने इससे मुक्ति के लिए भगवान शंकर से प्रार्थना की थी। इसी के बाद भोलेनाथ ने देवताओं के प्रार्थना पर उसका वध किया और वह कोई और दिन नहीं बल्कि कार्तिक पूर्णिमा का था। त्रिपुर के वध के बाद उसके खुशी में देवताओं ने काशी के गंगा तट के किनारे दिवाली मनाई और तभी से ये परंपरा चली आ रही है। मान्यता यह भी है कि इस दिन अदृश्य रूप से स्वर्ण लोक से देवता पृथ्वी पर आते है।
दीपदान करने से मिलती है सभी कष्टों से मुक्ति
देवताओं के पृथ्वी पर आने की वजह से घाटों पर दीपदान भी किया जाता है। सालों से चली आ रही पंरपरा को आज भी लोग देवताओं के नाम से 108 बत्ती का दीप जलाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि देव दीपावली के दिन दीपदान करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। इसके अलावा एक और कहानी है जो राजा दिवोदास से जुड़ी है। इस कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था, लेकिन कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शंकर रूप बदलकर काशी आए। इसकी जानकारी राजा दिवोदास को हो गई और भोलेनाथ ने इस परंपरा को तोड़ दिया। जिसकी खुशी में देवताओं ने गंगा के तट के किनारे दीप जलाकर खुशी मनाई।
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