मथुरा में अपनों की ठुकराई माताएं किसी तरह से जीवन यापन कर रही हैं। गौर करने वाली बात हैं कि यह सभी संपन्न घरों की है। इन महिलाओं ने अपनी दर्दभरी दास्तां बताई तो सभी की आंखे भर आई।
निर्मल राजपूत
मथुरा: अपनों की ठुकराई हुई माताएं वृंदावन में रहकर अपना जीवन-यापन कर रही हैं। किसी का बेटा इंजीनियर है तो किसी का कस्टम ऑफिसर। परिवार संपन्न होने के बाद भी यह माताएं दर-दर की ठोकरें खाते हुए वृंदावन के आश्रमों में पहुंचती हैं और यहां श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर अपना जीवन यापन कर रहीं हैं। अब ना तो इन मातओं को अपने परिवार की याद आती है और न ही किसी रिश्तेदार की। भगवान के भजनों में लीन होकर भजन कीर्तन करते हुए जीवन बिता रही हैं।
समृद्ध घरों की मां यहां गुजार रही जीवन
वृंदावन की परिक्रमा मार्ग स्थित विधवा आशा सदन में रहने वाली माताएं वृंदावन मथुरा में सड़कों पर चलकर भीख मांगती आपको दिखाई दे जाती होंगी। माताओं के आश्रय सदनों में रहने के पीछे बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। यह माताएं कोई आम महिला नहीं हैं। संपन्न परिवारों की महिलाएं हैं। अपनों ने इन्हें दुदकारा तो यह वृंदावन के आश्रय सदनों की ओर अपना रुख कर लिया और वृंदावन के आश्रय साधनों में रहकर अपने जीवन को गुजार रही हैं।
झरना बनर्जी नाम की महिला जो पिछले डेढ़ वर्ष से वृंदावन के आश्रय सदन में रह रही हैं। यहां रहकर अपना जीवन यापन कर रही हैं। झरना बनर्जी ने बताया- उनके दो बेटा और दो बेटी हैं। एक बेटा गुजर गया है। एक इंजीनियर और दूसरा कस्टम ऑफिसर था। पति रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। उनकी एक्सीडेंट में मौत हो गई। पति की हादसे में मौत होने के बाद उस घर में मेरा कोई नहीं रहा। बेटों की पत्नियां आए दिन झगड़ा करतीं और घर से बाहर निकाल देती थीं। इसी बात से परेशान होकर मैं मथुरा के लिए निकल आई। 7 साल मथुरा रेलवे जंक्शन पर रही थी। भीख मांग कर बमुश्किल दो वक्त की रोटी नसीब होती थी। पैर टूट गया था तो वृंदावन के आश्रम में बड़ी मुश्किल से पहुंची। वृंदावन के आश्रय सदन में रहकर अपना जीवन व्यतीत कर रहीं हूं।
कई रात भूखे पेट सोने के बाद पहुंची आश्रम
मनु घोष नाम की 90 वर्षीय विधवा माता से जब उनके जीवन के बारे में पूछा तो कुछ देर तो वो शांत रहीं। उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और धीरे से बोली- 11 वर्ष की उम्र में 40 साल के व्यक्ति से उनकी शादी हो गई। पति की मौत के बाद परिवार ने साथ छोड़ दिया। मैं कोलकाता की एक कोठी में कपड़े और बर्तन धोने का काम करने लगी। समय बीतता गया लेकिन इस दौरान जब मेरे विधवा होने की जानकारी कोठियों में रहने वालों को हुई तो उन्होंने भी मेरा साथ छोड़ दिया। मुझे काम से निकाल दिया। मैं और मेरी बेटी सड़क पर आ गए। किसी से कोई उम्मीद नहीं थी। भूख के कारण बेटी भी मर गई। इसके बाद में हमेशा के लिए वृंदावन आ गई। रास्ता नहीं पता था। हाथ मैं पैसे भी नहीं थे। कई कई दिनों तक भूखी प्यासी रही। कई साल सड़कों और स्टेशनों पर भी गुजारे। भीख मांग कर अपना पेट किसी तरह भर लेती थी। कभी-कभी ऐसा दिन गुजरता था कि भूखे पेट सोना पड़ता था। किसी तरह वृंदावन के एक ऐसे आश्रम में पहुंची जहां खाने-पीने को नहीं था। इसके बाद भजनाश्रम में जाकर भजन करती रही जहां कुछ रुपए मिलते थे, जिससे खाने का गुजारा हो जाता था। यहां रहते हुए 31 साल हो गए हैं।
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