यूपी के दिग्गज नेता और सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का सोमवार सुबह गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में निधन हो गया। बीते कुछ सालों से वह लगातार गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे। राजनीति में 55 साल के सफर में उन्होंने हर धूप-छांव देखी थी।
लखनऊ: समाजवादी पार्टी के संरक्षक और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का सोमवार सुबह निधन हो गया। उनकी उम्र 82 साल की थी। सोमवार सुबह मेदांता अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। वह बीते 22 अगस्त से खराब स्वास्थ्य के चलते मेदांता अस्पताल में भर्ती थे। वहीं 2 अक्टूबर से वह लगातार लाइफ सपोर्ट सिस्टम यानी वेंटिलेटर पर थे। उन्हें जीवन रक्षक दवाइयां दी रही थीं। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ट्वीट कर अपने पिता के निधन की पुष्टि की है। समाजवादी पार्टी के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर लिखा कि "मेरे आदरणीय पिता जी और सबके नेता जी नहीं रहे"। कई दिनों से उनकी हालत गंभीर बनी हुई थी। प्राप्त जानकारी के अनुसार, मुलायम सिंह यादव का अंतिम संस्कार यूपी के सैफई में किया जाएगा। बताया जा रहा है कि अगले कुछ घंटों बाद उनका शव सैफई ले जाया जाएगा।
80 के दशक में जमीनी नेता के तौर पर थी सूबे में पहचान
मुलायम सिंह यादव का जन्म इटावा जिले के सैफई गांव में हुआ था। वह एक किसान परिवार से तालुक रखते थे। बता दें कि नेताजी अपने पांच भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थे। पहलवानी करने वाले और उसके बाद टीचिंग के पेशे में आने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपने जीवन में कई तरह की मुश्किलें देखीं थीं। वह कई दलों में शामिल रहे और बड़े नेताओं की शागिर्दी भी की। इसके बाद उन्होंने अपना दल बनाया और एक दो बार नहीं बल्कि यूपी में तीन बार सत्ता संभाली। यूपी की राजनीति जिस धर्म और जाति की प्रयोगशाला से होकर गुजरी उसके एक कर्ताधर्ता मुलायम सिंह भी रहे। बता दें कि 80 के दशक में मुलायम सिंह लखनऊ में अक्सर साइकिल की सवारी करते हुए नजर आ जाते थे। कई बार वह साइकिल पर सवार होकर न्यूज-पेपरों के ऑफिस भी पहुंच जाया करते थे। इस दौरान उनको जमीन से जुड़ा हुआ नेता माना जाता था। लोगों की नजरों में वह एक ऐसे नेता थे, जो लोहियावादी और समाजवादी होने के साथ धर्मनिरपेक्षता की बातें करता था। 80 के दशक में वह यादवों के नेता के तौर पर माने जाने लगे। वहीं गांव से जुड़ा होने के कारण उन्हें किसानों का भी सहयोग मिल रहा था। राम मंदिर आंदोलन के शुरूआती दिनों में वह मुस्लिमों के पसंदीदा नेता के रूप में सामने आए। बहुत कम लोगों को यह बात याद होगी कि वह अपने राजनीतिक गुरू चरण सिंह के साथ मिलकर इंदिरा गांधी को वंशवाद के लिए जमकर कोसते हुए नजर आते थे।
राजवीतिक गुरू चौधरी चरण सिंह से हो गए थे नाराज
हालांकि इसके बाद उन्हें खुद भी अपने बेटे और कुनबे को राजनीति में बडे़ पैमाने पर आगे बढ़ाने के लिए भी जाना जाने लगा। इस तरह से मुलायम भी वंशवाद से अछूते नहीं रहे। मुलायम अपने राजनीतिक गुरू से उस दौरान नाराज हो गए जब चौधरी चरण सिंह ने अमेरिका से वापस आए अपने बेटे अजीत सिंह को पार्टी की कमान सौंपनी शुरूकर दी। इस दौरान राष्ट्रीय लोकदल में मुलायम सिंह की जबरदस्त पकड़ थी। चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद पार्टी टूट कर बिखर गई। मुलायम ने चौधरी चरम सिंह के बेटे अजीत सिंह का नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया। वहीं 1992 में उन्होंने एक नई पार्टी बनाई। समाजवादी पार्टी जिसकी नींव नेताजी ने रखी थी। भले ही आज यह पार्टी अखिलेश यादव के पास हो लेकिन मुलायम सिंह यादव हमेशा मार्गदर्शक के तौर पर इस पार्टी से जुड़े रहे। साइकिल से कभी लखनऊ घूमने वाले नेता जी ने अपनी पार्टी का प्रतीक चिन्ह भी साइकिल को बनाया। मुलायम सिंह ने जिस बैकग्राउंड से राजनीति में अपना सफर शुरू किया था उसमें वह समय के साथ और मजबूत होते चले गए।
राममनोहर लोहिया और चरण सिंह से सीखे राजनीति के गुर
इस दौरान उन्होंने अपनी सूझबूझ का भी बढ़िया इस्तेमाल किया। वह जिस ओर हवा का रुख देखते उसी ओर अपना रुझान दिखाते थे। कई बार उन्होंने अपने ही फैसलों और बयानों को खुद से अलग कर दिया। राजनीति में कई सियासी दलों और नेताओं ने उन्हें भरोसेमंद नेता नहीं माना लेकिन हकीकत यही रही कि वह जब तक यूपी की राजनीति में सक्रिय रहे तब वह हमेशा किसी न किसी रुप में आवश्यक बने रहे। मुलायम सिंह ने राजनीति के दांव-पेंच 60 के दशक में राममनोहर लोहिया और चरण सिंह से सीखने शुरू किये थे। लोहिया के जरिए ही उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। बता दें कि 1967 में लोहिया की ही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुलायम सिंह को टिकट दिया था। जिसके बाद वह पहली बार चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे। इसके बाद वह प्रदेश की राजनीति में अपना रास्ता खुद बनाते चले गए। मुलायम को उन नेताओं में जाना जाता था, जो यूपी और देश की राजनीति की नब्ज समझते थे और सभी दलों के लिए सम्मानित भी थे।
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