Rebuplic Day Special: फिरंगियों ने सफेद बारादरी को क्रांतिकारियों के खून से रंग दिया था, जानिए पूरा इतिहास

40 दिनों तक चले युद्ध के दौरान क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा तो लिया, लेकिन वे अंग्रेजों पर विजय पाने में नाकामयाब रहे। फिरंगी सेना ने रेजीडेंसी के अंदर और बाहर इस कदर गोलीबारी की कि उसकी चिंगारी सफेद बारादरी तक पहुंच गई। मेजर बर्ड ने भी अपने लेख में इसका जिक्र किया है जिसमे बारादरी के तहखाने में क्रांतिकारियों की सेवा करने वाले बेनाम क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों ने जुल्म कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था।

लखनऊ: देश की आजादी में क्रांतिकारियों के साथ ही इमारतों ने भी अपना फर्ज निभाया था। स्वतंत्रता की आंधी में खुद चट्टान की तरह खड़ी रहने वाली सफेद बारादरी (white baradari) का रंग क्रांतिकारियों के लहू से लाल हो गया था। चार मई 1857 को स्वाधीनता की जंग के दौरान बेगम हजरत महल ने बारादरी के तहखाने में अनाज के भंडार बनाए थे जहां क्रांतिकारी भोजन करने के साथ ही फिरंगियों से दो-दो हाथ करने की रणनीति बनाते थे। फिरंगियों ने न केवल इस पर हमला किया था बल्कि क्रांतिकारियों को मौत के घाट उतार दिया था। 

इतिहासकार पद्मश्री डॉ.योगेश प्रवीन के मुताबिक नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल 1840 से 1856 के बीच इसका निर्माण किया गया था। लाल पत्थरों से बनी इस इमारत में नवाब मेहमान नवाजी के लिए इसका इस्तेमाल करते थे। 30 जून 1857 को जब इस्माइलगंज में क्रांतिकारी अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे तो इस दौरान भोजन का पूरा प्रबंधन बारादरी के तहखाने से होता था। क्रांतिकारियों द्वारा अंग्रेजों को शिकस्त देने के साथ ही बेगम हजरतमहल तहखाने में स्वयं जाकर भोजन का न केवल इंतजाम देखती थीं बल्कि अपने बेटे और अन्य रणनीतिकारों के संग बैठक कर लड़ाई का मसौदा तैयार करती थीं

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40 दिनों तक चले युद्ध के दौरान क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा तो लिया, लेकिन वे अंग्रेजों पर विजय पाने में नाकामयाब रहे। फिरंगी सेना ने रेजीडेंसी के अंदर और बाहर इस कदर गोलीबारी की कि उसकी चिंगारी सफेद बारादरी तक पहुंच गई। मेजर बर्ड ने भी अपने लेख में इसका जिक्र किया है जिसमे बारादरी के तहखाने में क्रांतिकारियों की सेवा करने वाले बेनाम क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों ने जुल्म कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। आयोजनों की खुशी में शरीक होने वाली सफेद बारादरी अपने आंचल में क्रांतिकारियों के जख्मों को आज भी संजोए हुए है। 

क्रांतिकारियों के भय से मोती महल में छिपे थे फिरंगी
अंग्रेजी शासन में जकड़ी भारत मां को आजाद करने के जज्बे के साथ क्रांतिकारियों ने फिरंगियों का जीना मुहाल कर दिया था। अवध में स्वतंत्रता संग्राम की जंग का आगाज क्या हुआ अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गए। उन्हें इसका आभास भी नहीं था कि मेरठ से उठी आजादी की चिंगारी नवाबी शहर-ए-लखनऊ में उनकी नींद उड़ा देगी। तीन मई 1857 को शहर में जंग-ए-आजादी के दौरान अंग्रेजों की चूलें हिल गईंष।

डॉ.योगेश प्रवीन के मुताबिक नवाब सआदत अली खां ने 1798 से 1814 के बीच मोती महल का निर्माण कराया था। नवाबी सल्तनत के इस नायाब नमूने नवाब के साले रमजान अली खां ने फिरंगियों के बहकावे में आकर नवाब को भोजन में काले गिरगिट का मांस खिलाकर मार डाला था। उसके बाद अंग्रेजों के साथ मिलकर उसने मोती महल पर कब्जा कर लिया था। अंग्रेजों की चाल कामयाब होने के साथ ही रमजान अली को फिरंगियों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था। फिरंगियों के जद में रहे इस महल को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने घेर लिया था। अंग्रेजी हुक्मरानों को यह नागवार गुजरी और वह विरोध करने लगे, लेकिन क्रांतिकारियों के जज्बे के आगे वे पस्त हो चुके थे।

कई दिनों तक बंधक रहने से अंगे्रजों के पास जब खाने का सामान समाप्त हो गया तो अंग्रेजों के सेवक काजल से मुंह को काला करते थे और मजदूरों की भांति वस्त्र पहनकर बाहर निकलने का प्रयास करते थे। मुख्य गेट पर क्रांतिकारियों के डटे रहने से भयभीत सेवक गोमती में कूद कर शहीद स्मारक के पास निकलते थे। दुकानदार भारतीय समझकर उन्हें सामान दे देते थे, लेकिन कई बार पकड़े जाने पर दुकानदार उनकी धुनाई भी करते थे। अंगद तिवारी व कनौजीलाल जैसे देशभक्तों के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की फौज दिन रात फिरंगियों पर हमले को तैयार रहती थीं। देशभक्तों क नाम से किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में वार्ड का नाम भी रखा गया है। 

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